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"BIKHRE SHUN"
   
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(3) Dincharya 3 (३) दिनचर्या ३
 
written by
Ashwani Kapoor



 
दिनचर्या ३
 

……. उसके आँसूओं का प्रवाह एकाएक रूक गया | मस्तिष्क के एक  कोने में बरसों से सुरक्षित नाम पति के मुख से सुनकर, स्मरतियों के बन्द द्वार एकाएक खुलने लगे| वह चौंक उठी- "अरे  |……  सतीश तो उसका अपना लाल है | कोख से जन्मा रत्न|' -उसे देखे शांति को एक युग बीत चला है| उसकी प्रतीक्षा करते-करते उसकी आँखो में धुंधलापन छा चुका है| अब लगता है अंधी हो जाएगी | और तब यदि पुत्र आ भी गया तो क्या होगा …….  , उसे देखेगी कैसे |    ……… वियोगिनी के आँसू बह निकले | सोचने लगा था उसका मन - 'कितनी शीघ्रता से ये दिन बीतते रहे …….   , सप्ताह, माह, वर्ष …….  , कई वर्ष बीत गए और मुझे कुछ आभास ही न हुआ | मै बूढी हो गई हूँ, एकाएक विश्वास नहीं आता | एक स्वप्न प्रतीत होता है ये जीवन | धुंध फैलाता एक बादल | कितनी निष्क्रियता ला दी है इसने मेरे जीवन मे | मेरा अतीत कभी वर्तमान भी था, कभी वे दिन साकार भी थे………, मैं एकाएक हाँ नही कह पाती | बचपन बीता, जवानी गई………, सब कुछ शेष भी बीतता जा रहा है, क्षण निरन्तर गतिशील हैं| सतीश से मिले तेरह वर्ष……… , एक लम्बा युग जैसे बीत गया है| अब तो यूँ लगता है हमारे जीवन में सतीश की उपस्थिती मात्र एक स्वप्न थी | केवल स्वप्न | जिसके साकार होने की अब नहीं | मगर ये विरह तो बढे जा रही है, मन की व्याकुलता उतरोत्तर तीव्र हुई जाती है |' - तब एकाएक उसकी व्याकुल वाणी पुकार उठी - 'सतीश   |     सतीश |'  - और कुछ न कह सकी वह | वाणी उसकी रूँध गई | बरसों से व्याकुल ह्रदय करुणाजनक चीत्कारें मारने लगा |
साधू राम ने देखा, शांति भी रोने लगी है | दोनों की रात्रि की निस्तब्धता को भंग करती सिसकियों ने वातावरण को भयानक बना दिया था |साधूराम को इस सूनेपन का आभास हुआ | इधर-उधर देखा उसने | खामोश दिवारे उसे घूरती प्रतीत हुई | निराशा देखकर तनिक डर गया | झट से आँखे पोंछ ली उसने और स्वयं को ढांढस बँधाने के प्रयत्न में शांति बोला - "तुम क्यों रोती हो   ?"
शांति ने द्रिष्टि उठाकर देखा साधू राम को कुछ इस तरह, जैसे उसी ने ही सब कुछ छीना है | हाँ, वही तो अपने हठ पर अडा रहता था और छोटी-छोटी बात पर लडता था |उसी ने ही तो उसके पुत्र से दूर किया था एक कटु-दीवाल चुन कर | वह मिल नहीं सकी सतीश से तो केवल इसी साधू राम की वजह से | साधूराम वही तो है जिसने शांति के ममतामयी-कोमल ह्रदय को अपने कठोर वचनों से सुप्त कर दिया था | लेकिन भीतर-ही-भीतर वह हरदम घुलती रहती | समय आया जब साधू राम का हठ टूट गया | पुत्र उसे भी याद आने लगा | कभी-कभी तो वह विलाप करने लगता था अपने बेटों को याद करके | शांति भला तब कैसे चुप रह सकती थी |रोते-रोते थक जाने पर दोनों एक-दूसरे को सांत्वना देते |दु:ख भूलने के लिए दूर कहीं खोकर अपने बचपन, अपनी जवानी के दिन याद करते | ऐसे में कभी शांति कहती उससे जा कर सतीश को मिल आने को, तब साधू राम कहा करता - "जरा सोचो, यदि उसके ह्रदय में हमारे प्रति कुछ स्नेह शेष होता तो स्वयं न चला आता हमारे पास | हम आप जाएँ इससे हमारा मान घटेगा, शांति,   मैं पिता हूँ और अपने जीते -जी इस शब्द को इतना तो न नष्ट होने दूँगा | हाँ, आ जाए वह, गले न लगा लूँ तो कहना |" - इस पर जब शांति पुछा करती-"फिर अक्सर एकान्त में क्यों इतना ताद कर उसे आसूँ बहाते हैं ? क्यों पुकार उठते हैं आप उसे   ?" -तब साधूराम कहता-"शांति | आसूँ मैं अपने भाग्य के प्रति बहाता हूँ | सतीश के प्रति हमारा स्नेह अभौतिक है | उसी को स्मरण किया करता हूँ | "
यह सुनकर शांति कुछ न कहती थी |
समय आया जब उन्हें सतीश के भौतिक-स्वरूप की आवश्यकता महसूस हुई | लेकिन तब पता लगा कि समय के पंखों के साथ उडकर उनका पुत्र कहीं और जा बैठा है | दूर एक शहर में | लेकिन वहाँ ढूँढ पाना उसे, यह साधूराम के बस की बात नहीं थी | तब दोनों को अपने मन की इस उत्कण्ठा को अपने आँसूओं के भार से, अपने बीत चुके दिनों की याद से दबाना पडा | और कभी जब इन सब को चीर कर वही उत्कण्ठा फिर उभर आती है तो उनकी तडपन का कोइ किनारा नहीं होता | कभी रोते हैं, कभी करुण शब्दों से एक दूसरे के मन को और अधिक रुला कर शांत करने की चेष्टा करते हैं |
एकाएक शांति के बहते आसूँ रुके, लेकिन करुण शब्द फूट पडे उसके मुख से - " कहते हो, मैं क्यों रोती हूँ ? हाँ, क्यों रोती हूँ मैं | मुझे तो हँसना चाहिए, मुझे खुशियाँ मनानी चाहिएँ,मेरा कोमल ह्रदय जो टूट चुका है |   मैं माँ हूँ जानते भी हो, फिर भी कहते हो क्यों रोती हूँ | इतने अज्ञानी तुम कैसे ? मेरी ममता पीडित है, जानते भी हो, फिर भी कहते हो-तुम्हे दुख क्या | माँ कब क्यों रोती है, कब क्यों स्वयं को पीडित कहती है - नहीं जानते क्या ?   आठों पहर मेरे साथ रहते हो, लेकिन मेरे दिल के दर्द को नहीं समझते |पत्थर तो नही तुम, जो सुन समझ सकते माँ के ममतामयी कोमल ह्रदय के स्वर को |"
-शायद मन को इन शब्दों ने कुछ ढाढस बंधाया, वाणी की उग्रता कुछ शांत हो गई | तब बडे करुण स्वर में कहने लगी - "असंख्य इच्छाओं के बल पर्, अपनी मंगलकामना करते हुए मैनें कल्पना लोक में बहकर कई महल बनाए थे | परन्तु होनी को कौन टाल सकता है | मुझे कोई ऐसा न मिला जो मेरे मन की थाह ले सके | एक को आदमी के हाथ की बनाई मशीन ने रौंदा डाला और दूसरे को इस समाज ने इतना बदल दिया कि उसके लिए हम दो अजनबी बन गए |……… राजा के वियोग में इतने आँसू अभी तक आँखो ने नही बहाये, जितने की जीते-जागते, अपनी दुनिया में मस्त सतीश की याद में बहा रहे हैं | जिस तडपन से बचने के लिए हमने भक्ति अपनाई थी, मन ठहर गया था कितनी जल्दी | भगवान सी सूरत में राजा की हँसती-खिलती सूरत दिखाई पडती थी | आज वह सब बिसर गया है | राजा जैसे हमारे जीवन का कोई अंग नहीं रहा | बस केवल सतीश है और उसकी याद तडपाए जा रही है | लगता नहीं कि कभी यह तडपन खत्म होगी……….|
"मैं कितनी दुर्भाग्यशालिनी हूँ , कोई नही कहता कि 'ले, मैं तेरा लाल ले आया ……. |' तुम भी बस अपनी ही कहते हो | कभी नही कहा- 'चल, रोती क्यों है, तुझे तेरे लाल से मिला लाऊँ |' -और न उस निष्ठुर ने कभी सोचा - "माँ रोती होगी,चलूँ, चलकर उससे मिल आऊँ|' -काश | इस धरती में समा जाऊँ कि उस जैसी विशाल बन कर कहीं भी बैठे अपने लाल को हरदम निहार सकूँ | जहाँ भी वह जाए, मुझ्से दूर न हो सके | हाश | मुझे माँ कहने आ जाता कोई, अभी | ……..  लेकिन मेरा ऐसा भाग्य कहाँ|……….   "
-आसूँ   उसके फिर बह निकले थे | आँगन का सूनपन उसे डराने लगा था | उससे द्रिष्टि चुराकर उसने  साधूराम की ओर देखा | वह चुपचाप बैठा, निरीह- भाव से उसे निहार रहा था | उसके शब्दों से शायद आज ही समझा था कि शांति उससे ज्यादा तडपती है सतीश को याद करके |
शांति प्रतिदिन अपने बीते दिनों को याद करती थी | वर्तमान उसके लिए पूर्णत: सूना था | पुत्र की याद में वह जब भी अश्रु बहाती, अन्तर्मन की गहराईयों  से जैसे सांत्वना-भरे स्वर में उसे कोई कहता प्रतीत होता- " शांति | मत उदास हो | मत रो| तेरा लाल एक दिन तुझसे आ मिलेगा | वह माँ को याद करेगा| एक दिन उसे अवश्य ही माँ की ममता की पुकार सुनाई पडेगी | स्मरण कर वह पश्चाताप के आसूँ बहाएगा, भागा-भागा तेरे पास आएगा, तेरे अंक में सिर छिपा कर फूट-फूट कर रोएगा | अंबर में कब तक पंछी विचरता रह सकता है |पंख थक जाते हैं तो विश्राम करके अपने नीड को लौटता है | सतीश आएगा, शांति उसका नीड तेरा अंक ही तो है |मत रो, शांति, मत रो   |" - और मन में उठते आशा भरे इस स्वर को सुनकर शांति चुप हो जाती थी | मगर कब तक यूँ चलता रहता ? कब तक वह पुत्र वियोग में भीतर-ही-भीतर घुलती रहती ? आखिर वह भी एक स्त्री थी, कोमल भावनाओं से ओत-प्रोत ह्रदय वाली माँ | साधूराम जब भी निराशा से भरे दो बोल उससे बोलता था, उसके ह्रदय का दर्द भी वाणी में ढलकर फूट पडता था |
………. जीवन सागर के वल शांत-सरल नहीं | इसमें तूफान भी आता है, सूर्य के आलोक में चाँदी की भाँति चमकता, शांत नीर कभी-कभी भयंकर लहरों का रूप धारण कर लेता है |
तब लहरें उँची-उँची उठती हैं, आकाश को छूने के प्रयत्न में किनारे पर खडे प्राणी को अपनी शक्ति के बल पर किन्हीं अज्ञात गहराईयों की ओर खीचं कर ले जाती है |…….. मगर एक समय फिर वही आता है, लहरें शांत हो जाती हैं | भयंकर गर्जना करती नीचे आ गिरती हैं और लौट कर सागर के अथाह नीर में में कहीं खो जाती हैं |
भावनाओं का तूफान थम गया था | वातावरण में पहले दिनों की भांति निस्तब्धता व्याप्त हो गई थी |
आँगन मे बिछी खाट पर साधूराम लेट गया | शांति उसके समीप ही अपनी खाट बिछ कर लेटी हुई थी | दोनों चुप थे | आकाश को घूर रहे य्हे | कहीं दूर से उठ रही स्म्रतियों की पुकारों को सुन रहे थे | अर्द्धचेतन मस्तिष्क उन्हें स्वप्न लोक की ओर ले जाने का प्रयत्न कर रहा था | शांति शीघ्र ही कहीं दूर खो गई | अस्तित्व का मोह तब ना जाने उसमें से कहाँ लुप्त हो गया था | उसका शरीर पूर्णतया: ढीला पडा हुआ था | वह सो चुकी थी |
लेकिन साधूराम अब भी आकाश को घूर रहा थ | उसकी आँखो की नींद कहीं ओर ही विचर रही थी | आकाश में झिलमिलाते तारे और अपने आसपास उसे अधंकार के साये न्रत्य करते दिख रहे थे | ह्रदय की गहराईयों मे उतरकर साधूराम साधूराम पने मस्थिष्क में उभर रहे नए-नए विचारों का अवलोकन कर रहा था|
नित नई घटनाओं का अवलोकन करना, उनका स्पर्श पाकर किसी नए अनुभव का आभास पाना हमारे जीवन का ध्येय है | स्रष्टि का प्रत्येक अंश एक घटना है और प्रत्येक घटना हमारे लिए ज्ञान का भंडार | यहाँ कुछ भी व्यर्थ नहीं |प्रत्येक बात एक चित्र का रूप धरे सामने आती है, उसका एकाग्रचित हो अवलोकन कर उसके द्वारा प्रसारित ज्ञान को अपने मस्तिष्क में संजो कर हम भूल जाते हैं कि कब क्या हुआ था | कहानी का मर्म समझ् लिया, सही बहुत अधिक है | हमारा ध्येय है जीवन के प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करना, अपने जीवन-कर्म को निरन्तर गतिशील रखना | जो कार्य पूर्ण हो चुक है, उस पर ही नहीं अपितु विकासशील पर भी ध्यान देना | अक्सर हम यही करते हैं| पुरानी बातें को भूलकर दैनिक-जीवन के कार्य में लीन रहते हैं | लेकिन कभी-कभी निराशावाद अपना प्रभाव दिखा जाता है | तब हम सब कुछ भूल जाते हैं | अस्तित्व ज्ञान बिसर जाता है | और साधूराम की भांति व्यर्थ की सोचते हैं | साधूराम ने केवल अर्थी देखी |यह कोई ऐसी अनोखी बात नही थी कि मस्तिष्क की घुंडी निराशा की ओर मोड दी जाए | साधूराम आज निराशावाद के सिद्धान्तों का प्रेरक बन अप्नी शक्ति के बहाव को अपने अतीत के टूटे क्षणों की ओर मोड ले गया | निराशावादी प्रव्रति ने उसकी आँखो में आँसू भर दिये थे | उसकी वाणी रह-रह कर यही कहने को विवश हो गयी जैसे कि साधूराम दुर्भाग्यशाली है |
शांति ने उसे समझाया, सब कुछ साधूराम ने सुना | लेकिन वह चाह्कर भी स्वयं को सांत्वना न दे पा रहा था | किसी की सांत्वना से मस्थिष्क को तब तक शांति नहीं मिलती जब तक कि मस्तिष्कवादी स्वयं को, अपने ह्रदय को स्वयं सांत्वना देने का प्रयत्न न करे | लेकिन वह तो ऐसा नहीं कर पा रहा था | उसका मन तो अपने उन्हीं क्षणों की ओर झुक गया था, जिनकी कल्पना उसके अस्तित्व में सिहरन पैदा कर रही थी | अपने अंत की सोचकर जब वह सिहर-सिहर उठता तो मन कुलबुला उठता उसका और वह फिर उन्हीं दिनों की ओर जा पहुँचता, जो उसकी इस सिहरन का कारण बने थे | उनकी याद कर कभी पश्चाताप महसूस होता उसे, कभी अपना दुर्भाग्य झलक उठता | वो दिन तो अब रहे नही थे, जब मन कठोर था उसका | अपने विचार थे उसके, जिनकी आड लेकर वह अपने जीवन पर कठोर प्रहार कर बैठा था | बेटा यदि अपनी मर्जी से कुछ कर रहा था तो काश साधूराम उसे टोकने के, ताने मारने के, अपनी प्रसन्न्ता प्रकट कर देता, तब ये दिन न आते उसके जीवन में | तब वह हँस तो सकता था खुलकर | तब उसे रह-रह कर अपना अंत स्मरण न आता और न ही अस्तित्व में उसके कहीं सिहरन पैदा होती   | लेकिना आज के साधूराम के मुख से निकलते अफसोस भरे शब्द यही कहते हैं न, ' होनी को कौन टाल सकता है |' - ऐसा जब भी कहता है साधूराम, तब उसे अपने उन शब्दों पर पश्चाताप होता है जो सतीश के प्रति उसके मुख से फूटते थे, कभी शांति के सम्मुख, कभी सतीश के सम्मुख | गलत कौन था ? - इस प्रश्न पर अब उसका बूढा मन नहीं सोच पाता है | - बस वह केवल सोचता है - वे दिन, वे बातें   | और कुछ सोचने का, विचार करने का उसमें दम नहीं रहा है |
अब भी वही सब कुछ सोच रहा था | उसका मन, याद कर रहा था सतीश के संग दिल्ली में बिताये दिनों को  !
मिलते हैं, लेकिन काम के समय | तब हँस कर बात कहाँ कर सकते है | -सतीश ने उत्तर दिया | लेकिन वह ताड गया कि उसके पिता का मूड आज कुछ उखडा हुआ है |
लेकिन इस पर खर्च क्या कम आता है ?
सोसाइटी में इज्जत बनाने के लिए यह सब कुछ तो करना पडता है, बाबू जी | संयत स्वर में उत्तर दिया उसने |
इज्जत जरुरी तो नहीं कि ज्यादा-सें-ज्यादा पार्टीयाँ देने से बढती है | चादर से ज्यादा लंबे पैर करने में घाटा ही है |
लेकिन मैं अपनी चादर से बाहर काम नहीं करता   ?
क्यों ? कितनी तनख्वाह है तुम्हारी, जो एक-एक पार्टी पर पांच-सात सौ रुपया खर्च कर देते हो | फिर साथ में तुम्हारा घूमने-फिरने का, घर का, नौकर-चाकर का सारा खर्चा पूरा हो जाता है ? - और साधूराम का यह प्रशन भी सही था | हजार-बारह सौ वेतन पाने वाला अफसर कैसे ढाई-तीन हजार खर्च करके कह रहा था कि पाँव उसके चादर से बाहर नहीं | परन्तु सतीश का उत्तर सुनकर साधूराम को महसूस हुआ था कि अपने खून-पसीने से पाल-पोसकर, पढा-लिखा कर वह जिस पुत्र का निर्माण चाहता था, उसमें वह कहीं चूक गया था | तभी तो उसका बेटा किसी भी तरह से उसके विचारों के अनुरूप नहीं बना | सतीश ने उत्तर दिया - अकले तन्ख्वाह ही तो नही मेरी | उपर से भी दो-तीन हजार बन जाते हैं | तन्ख्वाह से दुगने, कभी तिगुने   | -सतीश ने समझा था कि पिता सुनकर कुप्पा हो जाएगा उसकी कमाई | लेकिन ऐसा नहीं हुआ | उसके शब्द सुनकर पलभर के लिए तो स्तब्ध रह गया, लेकिन फिर बोला- बहुत अच्छे बेटे, तुम्हारी यह बात सुनकर तो मुझे लगता है कोई बहुत बडा काम करते हो | तुम देश समाज के लिए जो जनता अपने कारिन्दों को इतनी बख्शीश लुटा देती है |
यह बख्शीश नहीं, बाबू जी, हक है | जो प्रथा शुरु से चली आ रही है उसी के अनुरूप ही सब होता है | - सतीश ने अपनी बात कही |
ये प्रथाएँ किस काम की, बेटा, और फिर तुम्हारी ये काली कमाई पानी में तो बह जाती है | और ये तुम्हारे दोस्त भी तो तुम्हारे जैसे होंगे | वे भी ऐसा ही करते होंगे | प्रथा मानते होंगे | फिर यह पार्टी देना भी प्रथा है और प्रथा को निभाने पर कौन तुम्हारा एहसानमंद होगा ? उनके लिए तो तुमने कुछ नहीं किया | केवल अपने समाज की प्रथा बढाई है…… | - साधूराम अपने प्रवाह में बहे जा रहा था |
शान है इसी में | आज मैं किसी को बुलाता हूँ तभी कोई दूसरा मुझे बुलाएगा……..| -सतीश अपनी बात पर टिका था | उसे साधूराम का बहस को लंबा कर ले जाना अखरने लगा था | लेकिन साधूराम तो अपनी धुन में बहता था | बोला - यह झूठी शान का रोना अच्छा नहीं होता, बेटे खर्चे बढाए जा सकते हैं, उन्हे कम करना दुख:दायी महसूस होता है |
तब सतीश मे बहस समाप्त करने के अन्दाज में कहा- आप यूँ ही बेकार का किस्सा ले बैठे है, बाबूजी | आप आज तक जिस वातावरण में रहे हैं, उससे बहुत अलग और ऊँचा है हमारा समाज | अब आप छोटी बातें मत सोचा कीजिए…….|
साधूराम को उसका यह 'ऊँचा' शब्द और 'छोटीबातें' अखर गया | तब वह बोला - कैसे न सोचूँ बेटा, मैं ठहरा अनपढ-गंवार और छोटे समाज का आदमी   | - उसके स्वर में दुख का भाव आ गया था | यह शब्द उसे कहीं गहरे में जाकर लगे थे | तब वह वहाँ से हट गया | अपने कमरे में जाते-जाते उसने सतीश को कहते सुना -न जाने हर दम सबको गलत क्यों समझ्ते हैं | मैं जो कहना चाहता हूँ, उल्टा अर्थ लगा लेते हैं |
क्या वास्तव में सतीश के कहने का ढंग गलत था  ?
सूरज ढलने तक साधूराम कमरे में बैठा रहा | तब तक उसका मन शांत हो गया था | मन उठकर बैठक में जाने को करने लगा था | घर मे शुरु होने जा रही रौनक को देखने की तमन्ना उभर आई थी उसमें | तब वह उठा ही था कि सतीश कमरे में चला आया उसके | साधूराम ने उसकी ओर देखा | तब सतीश ने कहा - आप दिन भर कमरे में ही पडे रहे, क्या बात है ?
अब मन ठीक था, इसलिए बहाना बना दिया -तबीयत कुछ खराब महसूस हो रही थी   |
अब कैसी है   ? -सतीश ने पूछा | वह कुछ और भी कहना चाहना था उससे |
कुछ आराम है   | -साधूराम ने कहा और सोचा कि सुनकर उनका बेटा पार्ती में शरीक होने के लिए कहेगा |
तो आप आराम कीजिए, कहीं और तबीयत न खाराब हो जाए | आपको खाना कमरे में ही पहुँचा दूँगा | - यह शब्द कहकर सतीश ने जैसे चैन की साँस ली | तब चाह कर भी साधूराम का दिल नहीं किया कि वह कह दे कि ऐसा कुछ नहीं | वह बिल्कुल ठीक है | लेकिन पुन: उसकी आँखो में सतीश का वह संकोची रूप उभर आया - वह मन मार कर पुन: पलंग पर लेट गया | सतीश मुस्कुराता हुआ कमरे से निकल गया | उसकी मुस्कुराहट देखकर उसका मन खिन्न हो उठा |
बाहर बैठे कमरे में पार्टी हो रही थी | साधूराम चुपचाप खिन्न मन से पलंग पर लेटा हुआ था | शांति शायद किसी दूसरे कमरे में थी | तभी सुमिता ने खाने की ट्रेय लिए कमरे में प्रवेश किया | तो साधूराम ने क्षुब्ध स्वर में कह दिया - मुझे भूख नहीं है |
ऐसा सुनकर सुमिता ने मधुर स्वर में पूछा था- क्या बात है। बाबू जी, तबीयत तो ठीक है ?
ठीक है………..| मन नहीं कर रहा |
हमसे कुछ गलती हुई, बाबूजी, आप नाराज लगते हैं - सुमिता उसके मनोंभावों को ताड गई थी |
गलती कौन करता है, बेटी |………. और यदि कोई करता भी है तो स्वीकारता कौन है ? -साधूराम का स्वर गम्भीर था |
आप क्या सोच रहे हैं फिर, खाना खाइये न |
सुमिता का आग्रहपूर्ण स्वर सुनकर तब साधूराम ने उसके मुख की ओर देखा था | सुमिता के मुख पर आशा के भाव थे…….. , जैसे उसे विश्वास था कि उसका श्रवसुर उसकी बात नहीं टालेगा | साधू राम ने उसके मनोभावों को समझा और खाना खाने लगा | तब सुमिता कमरे से बाहर चली गई थी |
बडे कमरे से आ रही कहकहों की आवाजें सुनते हुए साधूराम सोच रहा था कि वह कभी इन कहकहों में सम्मिलित नहीं हो पाया | उसका जीवन आरम्भ से ही सूना है, अब भी सूना है, और लगता है सदा सूना रहे गा | सकान्त-चुप्पी उसके जीवन पर्यन्त साथी रहेंगे | सतीश अपने पिता के इस अकेलेपन को जानकर भी दूर नहीं करता | उसमें से भी वह शक्ति समाप्त हो गई जो उसे कह सके कहकहों मे खुलकर भाग लेने को | नहीं कहा गया उससे- बाबू जी | आप भी मेरे दोस्तों के साथ बैठ कर हँसिये | तबीयत ठीक हो जाएगी | कितना अलगाव महसूस कर रहा था वह | आँसूओं को वह रोक नहीं पाया ऐसा सोचकर मुँह की ओर जाता रोटी का टुकडा हाथ में ही रह गया था और वह सामने की ओर देखने लगा था, एकटक | तभी सुमिता पुन: आ गई थी - बाबूजी | कुछ चाहिए   ?
तभी उसने साधूराम की आखोँ से आसूँ बहते देख लिए थे | चौंक पडी एकाएक | अविश्वास भरे स्वर में बोली - बाबूजी | आपकी आँखों में ये आँसू   |
एं……… | -साधूराम को उसका ये स्वर सुनकर अपनी स्थिति का एहसास हुआ तो उसने स्वयं पर ही आश्चर्य प्रकट किया था |
सुमिता अपने श्रवसुर की यह दशा देखकर् बेचैन हो उठी थी | उसने तब पूछा - बाबू जी | क्या हुआ ?
आप रोए क्यों ?
यूँ ही, बेटी, कुछ भी नहीं……… | साधूराम ने बात टालनी चाही |
नहीं बाबू जी, अवश्य ही कोई बात है | मुझे बताइये | आपको | मेरी सौगन्ध……… | …….. सुमिता के स्वर में स्नेह था | और वह स्नेह साधूराम के मन में छिपी बात को उगलवा कर ही रहा | तब उसने आद्र स्वर में कहा था - पिछली बार मुझे पार्टी में शामिल किया था तुमने, बहुत आन्नद आया था मुझे | तुम्हारे अतिथियों के कहकहों को सुनकर मैं आज उनमें शामिल तो नहीं हो सका, पर अपने अतीत मे जा पहुँचा |
उन जैसी उन्मुक्त हँसी मैंने आज तक नहीं देखी......., मैं इतना खुलकर कभी नहीं हँसा......|  -यह सुनकर सुमिता स्तब्ध रह गई थी | उसके मस्तिष्क को उन शब्दों ने झकझोर-सा दिया था | आँखों में उसकी दो आँसू टपक पडे थे |

आप भी चलिए, बाबू जी.....|
-आँखे पोंछ कर सुमिता ने कहा था |    
कहाँ .......?
नहीं-नहीं .... वहाँ मेरा जी घबराएगा | मैं अब नहीं बैठ सकता शोर में | मुझे यहीं से आनन्द आ रहा है.......| - तब उसे लगा इन्हीं शब्दों को कहने के साथ-साथ भीड में शामिल होने की उसकी इच्छा मर गई है | उसे अपने  ह्रदय की धड़कन तीव्र होती सुनाई दी - तुम जाओ अब, सब तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे | .... मुझे अब और कुछ नहीं चाहिए | मेरा पेट भर गया | 

दो महीने और बीत गए | साधूराम ने देख-जान की उसमें और उसके बेटे में बहुत फर्क है | विचारों का अन्तर तो ऐसा है जिसे वह क्या, कोई भी नहीं मिटा सकता | और तब उसने सोचा की उसके पास रहकर अपने भीतर हीन भावना को उतरोत्तर  पनपने देने से बेहतर उसके लिए यही होगा की वह शान्ति को लेकर खन्ना लौट जाए | वह सम्बन्ध तोडना नहीं चाहता था, इसीलिए लौटने का बहाना उसने बनाया घर की याद | बस और कुछ नहीं | वह अब भूलकर भी कल्पना नहीं करता था कि कभी कोई ऐसा दिन आएगा जब सतीश उसके चरणों में बैठकर उसकी सेवा करेगा | उसके विचारों के अनुरूप चलेगा | अपनी बूढी हडडियों को आराम देने कि बात उसने विचारनी छोड़ दी थी | अब साधूराम था, शांति थी, और उनकी पैतृक दुकान थी ......, अलग का छोटा-सा संसार था, जिसका सतीश के संसार से सम्बन्ध जोडे रखने का काम चिट्ठयां कर रही थी | पिता-पुत्र कि आत्मा कभी एक थी | शांति का कभी एक ही अस्तित्व था, जिसके दो पहलू  थे - सतीश जिसे माँ के रूप में देखता था और साधूराम जिसे अपनी पत्नी मानता था | अब शांति के दो टुकडे हो चुके थे | एक वही था, वैसा ही जैसा उत्पति के समय था |  उससे उसको वही प्यार मिलता था, वही सुख | दूसरा टुकडा अलग एक कोने में जा पड़ा था, जिसके पास केवल दो ही शब्द थे - 'माँ को प्रणाम ?'
 - माँ को प्रणाम...... |
बस और कुछ नहीं ...... |
-माँ तो तेरी याद आती  है  | माँ करता है उड़कर तेरे पास चला आऊँ |' -ऐसा कुछ भी तो नहीं | उसके लिए माँ तो हर बार लिखवाती है - ' तेरी माँ हरपल तुझे याद करती है | तेरे लिए रोती भी है | मन बहुत करता है उसका तुझे देखने को | तू  आकर उससे मिल जा |'
- लेकिन उत्तर वही आता - बस केवल - माँ को प्रणाम..... |
..... और कुछ नहीं....... |  

Bikhre Kshun - written by Ashwani Kapoor