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ठन-ठन-ठन-ठनन....|
-गली के निवासियों को पिछले एक ,आह से हर शाम यही आवाज सुनाने को मिलाती है | निरंतर तीन-चार घंटे तक | कभी दिन भर भी | लौहार के हथौड़े की आवाज इस बात की प्रतीक है की एक नया प्राणी - यानी वह - इस गली में आकर वास करने लगा है | अब सभी उसे पहचान गए हैं | इसका नाम लच्छन है | कहाँ से आया है ? अकेले क्यों है ? - इन प्रश्नों का उत्तर शायद गली के किसी निवासी के पास नहीं | लेकिन सभी इसकी दिनचर्या से परिचित हो चुके हैं |
ठन-ठन-ठन-ठनन.... |
आग में तपे लोहे का रूप परिवर्तित करने के लिए वह निरन्तर हथौड़ा चला रहा था | निरन्तर लोहा कूट रहा था | निरन्तर लोहा कूट रहा था दया का तनिक भी भाव उसके मुख पर नहीं था | उसके मुख पर कठोरता थी, कर्म की आभा थी, भटठी की धधकती अग्नि की लालिमा थी | साँस का स्वर कुटते लोहे की आवाज के संग मिलकर एक संगीतमय स्वरलहरी उत्पन्न कर रहा था |
ठन - ठ्न्नन-हू-हां .....
ठ्न्नन-ठ्न्नन-हू-हा.......
ठन-ठन-हू-हा ........
स्वर लहरी संगीतमय ही तो थी | र्रोप परिवर्तन लीला के सुन्दर पक्ष को प्रदर्शित ही तो कर रही थी | कर्म, प्रयत्न और लग्न का सम्मिश्रण शिव की उत्पत्ति में सहायक है और इन सभी भावों का उदगम क्षेत्र संगीतमय स्वरलहरी युक्त ही तो है | एक व्यर्थ के लोहे के टुकडे को आग में तपाकर, हथौड़े की चोटे मारकर उपयोगी बनाया जा रहा था |
गली के इस त्यौहार की यह दिनचर्या है | दिनभर बाजार में पिछली शाम का बनाया माल बेचता है और शाम के समय भट्ठी के सम्मुख बैठकर लोहे के बेकार टुकड़ों से उपयोगी वास्तुएँ बनाया करता है | रात गहरी होते भीतर झुग्गी में जाकर सो जाता है | इसका कोई अपना नहीं | कभी किसी को भी याद नहीं करता | अकेला है, परन्तु इसके चेहरे यही महसूस होता है की इसे कभी अपने अकेलेपन का आभास नहीं होता | दिनभर शारीरिक - परिश्रम करता है, मगर कभी 'उफ्फ' नहीं करता | इसे अपने कर्म से सदा आनन्द मिलता है | अपना एक कर्म क्षेत्र है इसका | छोटा-सा , दुनिया के सारे छल-प्रपंचो से दूर | जो कुछ करता है, ख़ुशी-ख़ुशी उसे स्वीकारता करता है | फल के प्रति इसके मन में कभी आक्रोश नहीं आया |
कभी पीछे मुड़कर भी इसने नहीं देखा, कभी आगे के सपने भी नहीं लिए | इसने कभी वे दिन याद नहीं किए, जब इसका भी एक छोटा-सा परिवार था | जब इसके भी बहुत से साथी थे | जब यह खानाबदोश कहलाता था | पत्नी इसकी मर गई, और पीछे रह गया था अकेला | अपना अकेलापन उसे काट खाने लगा | समूह के दूसरे साथियों को हँसते - खेलते देखकर वह उसने कटने लगा | दूसरों द्वारा बार-बार आग्रह करने पर भी वह अपनी पत्नी को नहीं भुला पाया, और फिर एक दिन बिना बताये इस गली में चला आया | खपरैल की छत के नीचे वह रहने लगा, जो बरसों से लावारिस पड़ी थी |
धीरे-धीरे वह पीछे के दिन भूल गया और अपने 'आज ' में लीना रहने लगा | अपने कर्म से वह कभी उबा नहीं, कभी पश्चाताप भी नहीं किया उसने | अब इसके लिए जो है, जैसा है, वही ठीक है | इसे अपना जीवन अत्यंत सरल महसूस होता है |
और इस गली के अन्य निवासी इस लोहार के जीवन से कितनी डोर बसे जीवन में साँस लेते हैं | इनका जीवन अत्यधिक जटिल है | कूटे जा रहे लोहे के समान | ये लौहार नहीं | इन्हें हथौड़े की अनगिनत चोटें खानी पड़ती हैं | तब जब ये एक निश्चित रूप प् लेते हैं तो अपने कच्चे पन की घड़ियाँ, 'ठन-ठनन ' के स्वर से भरी अपनी संघर्षमयी ये याद नहीं करना चाहते | लेकिन जब कुछ गम सा मन में छाया होता हैं, जब निराशा का मन पर अधिकार होता है , तब इन्हें अपने अतीत के उन क्षणों की याद आती है जब ये नियति के हथौड़े की चोटे खा रहे थे, जब इनका व्यर्थनीय रूप धधकती अग्नि में तपाया जा रहा था | उन क्षणों को ये तब अपने स्मृति-पट पर बिखेरते हैं | इसलिए नहीं की वे क्षण वर्तमान से सुन्दर थे , बल्कि इसलिए के वे क्षण एक नई सीख प्रदान करते हैं |
और लच्छन को निरंतर भट्ठी के पास बैठा देखकर गली के लोग इसे अपना प्रेरक मानने लगे हैं | सभी इसे आते-जाते ध्यान से देखते हैं , कुटते लोहे पर नजर डालते हैं, धधकती ज्वाला को देखते हैं ......, और अपनी इन सबसे तुलना करते हुए आगे बढ़ जाते हैं |
साधूराम ने गली में प्रवेश किया | लौहार के हथौड़े की आवाज उसके कानों में पड़ी | कदम और आगे बढाए, लच्छन की खपरों से बनी झोंपड़ी के पास आकर रूक गया | साधूराम ने उसकी और देखा - पसीने से लथपथ , कृष्ण काया, कानों में बड़े-बड़े कुण्डल, मैले-कुचैले वस्त्र | निरंतर हथौड़ा चलाने में मग्न लच्छन | उसकी सांस का स्वर इतना तीव्र था की छ: फुट दूर खडा साधू राम सुन रहा था | साँस और कुटते लोहे की स्वरलहरी का मिश्रण उसके कानों में रस घोलने लगा :
ठन – ठंन्न- ठ्न्नन-हू-हां .....
ठंन्न- ठ्न्नन-हू-हां .....
ठंन्न- ठंन्न- ठंन्न- हू-हां ..... |
एकाएक स्वर रुक गया | लच्छन को अपने समीप किसी के खड़े होने का आभास हुआ | हथौड़ा रोककर उसने दृष्टि घुमाकर देखा | साधू राम ही था |
साधू राम से लच्छन का परिचय पहले दिन ही हो गया था | उस शाम जब वह लोहा कूट रहा था तो साधू राम ने उसके समीप आकर पूछा था -भैया पुराना लोहा खरीदोगे ?
लच्छन ने दृष्टि उठाकर आगुन्तक की और देखकर कहा था - जी ले लूँगा |
और जब साधू राम एक थैले में तीन किलो के लगभग लोहा लेकर आया था तो लच्छन से परिचय प्राप्त करने लगा था | लच्छन ने उसमें आत्मीयता की झलक पाकर विषय में सब कुछ उसे बता डाला थे | उस दिन के पश्चात साधू राम गलीं में आते-जाते लच्छन को "राम-राम" अवश्य करता था |
साधू राम को यूँ खड़े देखकर लच्छन मुस्कुराने लगा | साँस को नियंत्रित कर उसने कहा - राम-राम, बाबा | कहो, कैसे हो ?
राम-राम, लच्छन | मैं ठीक हूँ , तुम सुनाओ ?
मजे से कट रही है | - फिर कुछ रूककर बोला - दो दिनों से दिखे नहीं | कहीं गए थे क्या ?
हाँ , करनाल गया था, भतीजी की शादी पर |
शादी पर गए थे | अच्छा, मिठाई ले होंगे | खिलाओ न |
हाँ-हाँ , क्यों नहीं |
-इतना ही कहकर साधू राम उसकी खपरैल के नीची चला गया | हाथ में पकड़ी पोटली खोलकर उसने मिठाई की दो मुट्ठियाँ भर कर लच्छन को दीं | अपनी धुन में मस्त लच्छन एकदम मिठाई पर टूट पड़ा | उसने साधू राम को धन्यवाद तक नहीं किया | साधू राम ने मिठाई खाते लच्छन की ओर प्रेममयी दृष्टि से देखा और मुस्कुराते हुए अपने घर की ओर आगे बढ़ा गया |
घर का दरवाजा बंद था | मगर केवल सांकल ही चढ़ी थी | साधू राम समझ गया की शांति मंदिर गई होगी | दरवाजा खोलकर वह भीतर चला गया | पोटली एक और रख वह आँगन में बिछी खात पर लेट गया | लच्छन शायद मिठाई समाप्त कर चुका था, क्योंकि उसके हथौड़े की आवाज फिर से आने लगी थी -
ठंन्न- ठ्न्नन-ठ्न्न- ठ्न्नन- ठ्न्न.....|
कभी-कभी लगता था जैसे लोहे के टुकड़े को कूटता हथौड़ा कह रहा हो -
जाग उठ - ठंन्न-ठंन्न-जाग उठ-ठ्न्नन-ठंन्न-जाग उठ-ठ्न्न्न.... |
ऐसा स्वर उठता महसूस कर साधोराम स्वयं से कहने लगा - 'जाग जा इंसान | जाग जा इंसान |'
इस समय साधू राम का मस्तिस्क एक अनोखे आनन्द की अनुभूति प् रहा था | एकाएक वह उठ बैठा | अपने शरीर को देखने लगा | उठकर भीतर कमरे में चला आया |
बत्ती जलाकर दर्पण के सम्मुख खड़ा हो गया | अपने रूप को निहारने लगा - लम्बा-दुबला शरीर , झुर्रियों भरा चेहरा , मुख में केवल चार दाँत, वह भी काले | पके हुए बाल | आँखों में मोटा चश्मा और बायीं बाजू के सीन पर झूलता कपड़ा |
साधू राम अपनी बाजू के रिक्त स्थान को देखने लगा और उसी को देखते हुए वह कमरे में बिछी खाट पर लेट गया | उसकी दृष्टि छत पर जा टिकी | सफ़ेद छत पर उसे कुछ चित्र नजर आने लगे |
साधू राम अक्सर ऐसे ही कहीं और खो जाया करता था | उसकी दृष्टी जब कभी किसी वास्तु पर कुछ क्षण के लिए स्थिर हो जाती थी, उसी के आधार पर वह अपने अतीत में खो जाता था | अब अपनी कटी बाजू पर दृष्टि टिकी की उसी के विषय में विचार करने लगा | इन क्षणों में उसे अपना अन्गाभाव खलने लगा | वह एक पूर्ण -स्वस्थ मनुष्य होने की कल्पना करने लगा | मगर उसी क्षण उसे एहसास हुआ की उसने अपने जीवन की सभी बहारें इसी व्यक्तित्व के साथ बीती हैं | उसकी बाजू तो बचपन में ही कट गई थी ..... बहुत पहले | अपने बचपन का उसे वह दिन स्मरण हो आया , जब वह एक पूर्ण-स्वस्थ बालक था .......
......गाँव भर के बच्चे नित्य जमींदार की हवेली के उद्दान में मिलकर नए-नए खेल खेला करते थे |
उनमें बालक साधू राम भी होता था | जमींदार का पुत्र गणेश उसका मित्र था | गणेश का स्वभाव बहुत कोमल था | वह मिलनसार प्रकृति का था | सभी उससे प्रेम करते थे | उस दिन गणेश और उसके साथी उद्दान में आँख -मिचौली खेक रहे थे | सभी खेल में मग्न थे | साधूराम भी अंधे बने लड़के के आगे-पीछे भाग रहा था | परन्तु रह-रहकर उसकी दृष्टि हवेली के मुख्य द्वार पर खड़े चौकीदार की ओर चली जाती थी | साधूराम उसकी दुनाली बन्दूक को बार-बार देखता, वह बहुत उत्सुक था उसे अपने नन्हें-नन्हें हाथों में उठाने के लिए | प्रतिदिन मन में उठने वाली यह चाह आज बलवती हो उठी थी | खेलना छोड़कर वह एक ओर खड़ा होकर, टकटकी बाँध कर बन्दूक को देखने लगा था | सोचने लगा था की चौकीदार काका से माँग कर देखे, शायद वह उसे दिखा दें | मगर काका के मुख पर छाये रौब से उसे डर लगता था | ......... आखिर साहस्कर, डरते-डरते वह काका के निकट चला गया | बन्दूक पर अपनी ललचाई दृष्टि टिकाकर काका से बोला - काका | मुझे यह दिखा दो | -साधू राम ने बन्दूक की ओर तर्जनी से संकेत किया |
क्यों ? क्या करोगे ? - काका ने पूछा |
यूं ही....... |
नहीं - नहीं , ये कोई खिलौना नहीं है |
दिखा दो न | -साधू राम ने तनिक आग्रह किया |
कह दिया न, नहीं | यह बच्चों के लिए नहीं होती |
मैं कोई बच्चा हूँ | -अपने शरीर पर दृष्टि डालकर साधू राम ने पूछा |
नहीं तो क्या बूढ़े हो ? -काका ने मुस्कुरा कर रहा |
इस बन्दूक से तो लम्बा हूँ |
हाँ-हाँ ,हो | मगर तुम अभी इस लायक नहीं | -फिर जरा रोब भरे स्वर में काका बोले - बस | अब जाकर खेलो |
दिखा दो ........ |
नहीं, जाओ | -काका ने डांट दिया | साधूराम सहम गया | उसने कभी डांट सुनी तक न थी | माँ-बाप तो थे नहीं, मामा-मामी ने फूल की भांति उसे पला था | इसीलिए उसका ह्रदय फूल की भांति कोमल था | थोड़ी-सी डांट भी नहीं सह सकता था | उसकी आँखों में दो आंसू टपक पड़े | काका ने यह देखा तो झट से आगे बढकर बड़े स्नेह के साथ उसकी आँखें पोंछ दी और पुचकारते हुए, बोले - अरे बच्चू | इसमें रोने की क्या बात है | जब बड़ा हो जाएगा , तो जी भरके इसके साथ खेलना | जाओ , जाकर खेलो |
साधू राम चुप हो गया | वहाँ से हटकर दुबारा साथियों के बीच लौट आया | उसका मन अभी भी उत्सुक था | सोच रहा था - ' अभी मेरी उम्र क्यों नहीं ? दस बरस का तो हो चूका हूँ | यूं ही डराता है, काका | -फलस्वरूप उसकी जिज्ञासा बढ़ गई | तभी उसने अंधे बने बालक ने पकड़ लिया | सभी बालक हर्ष से चिल्लाए | अब साधूराम की अँधा बनने की बारी थी | न चाहते हुए भी उसे अपनी आँखों पर पट्टी बंधवानी पड़ी | तभी एक बालक ने उसे धीमे से धक्का दिया | साधूराम इधर-उधर हाथ मारते हुए भागने लगा | कोई पीछे से आकर उसे धौल जमा देता था , कोई च्युटी काट लेता था | साधू राम उनकी आवाज के सहारे, हाथों से टटोलते हुए किसी एक को पकड़ने का प्रयत्न कर रहा था | आखिर पाँच मिनट भगा-दौड़ी करने के उपरान्त उसने एक लड़के को पकड़ लिया |
आँखों से पटटी खुलते ही उसकी दृष्टि सीधे चौकीदार काका की ओर गई | उसने देखा , बन्दूक मुख्य द्वार के साथ बनी कोठरी के दरवाजे से टिकी पड़ी है | और चौकीदार काका झाड़ियों की ओर जा रहा है , शायद मूत्र त्यागने | यकायक साधूराम के ह्रदय की धड़कन बढ़ गई | उसके मन की ललक तीव्र हो उठी | उसने अपने साथियों की ओर देखा, वे फिर से खेल में मग्न हो गए थे | वह एकदम बन्दूक की ओर भागा |
झट से बालक साधूराम ने बन्दूक को हुँदै से पकड़ लिया | फिर उसे सीधा अपने शरीर के साथ टिका लिया और उसकी नाली को पकड़ कर सीधा खड़ा हो गया | 'घोडे' को छेडने के लिए वह थोडा झुका, ऐसा करते समय बन्दूक की नाली उसकी बाँह से जा लगी | उसने घोडे क दबाने का प्रयत्न किया....., तनिक जोर लगाया......, और.....
..... उसी क्षण वातावरण में जोर से धमाका हुआ | साधूराम की चीख साडी हवेली में गूँज गई | वह गिर कर तड़पने लगा था | रक्त का फौव्वारा उसकी बाँह से फूट पड़ा था | क्षण भर पश्चात ही वह बेहोश हो गया |
साधू राम को जब होश आई तो उसने दृष्टि घुमाकर अपने आस-पास का निरिक्षण किया | इस समय वह एक कमरे में था | उसके सामने ही मामा-मामी खड़े थे | दोनों के चेहरे उदास थे, आँखों में आँसू थे | उसकी दांयी ओर जमींदार साहब खड़े थे | ओर जब उसने अपनी बाई ओर दृष्टि घुमाई , तो उसे अपने किसी अंग का अभाव हुआ | लेटे-लेटे ही उसने अपनी आँखों अपने शरीर पर दौड़ाई | अपने शरीर के प्रत्येक अंग को हिलाकर देखने लगा | बाई ओर कुछ रिक्तता पाकर उसने उठने की चेष्टा की और अपनी बाई बाजू न देख चीत्कार के बेहोश हो गया |
पुन: जब उसने आँखें खोली तो देखा एक डॉक्टर उस पर झुका हुआ है | साधू राम के मुख से निकला - मामी | .....मामी, मेरी बाजू कहाँ गई ?
उसकी पुकार सुनकर मामी उसके समीप चली आई | उसके माथे पर स्नेह से हाथ फेरते हुए मामी ने कहा - कुछ नहीं हुआ, साधू, कुछ नहीं | सब ठीक हो जाएगा | -मामी ने तब अपने आँसूओं को रोकने का भरसक प्रयत्न किया |
नहीं-नहीं, मेरी बाजू कहाँ गई ? - वह फफक-फफक कर रोने लगा | यह देखकर सभी की आँखों में आँसू भर आए | मगर जो हो चुका था, उसे यह नमकीन पानी कैसे झूठ कह ठुकरा सकता था ? .........नदियाँ कितनी हैं , समुद्र में अथाह जलराशि है, मगर धरती पर सूखा तब भी पड जाता है , प्राणी पानी-पानी करते प्यासा मर जाता है, फसलें तब भी नष्ट हो जाती हैं .....|
'.....सूखे की भूख को कोई नहीं रोक पाया | आज हमनें कितनी उन्नति कर ली है , मगर तब भी देश के किसी न किसी भाग में सूखा पड़ा ही रहता है | दस-दस दिन अन्न देखने को नहीं मिलता | भूख के कारण आँते कुलबुलाने लगती है , आँखें बाहर आने को होती हैं , मगर आँसू कुछ नहीं कर पाते | वे भी सूख जाते है | कुसमय कौन साथ देता है | सब कुछ सहना पड़ता है जीने के लिए | जीवन कितना अमोल है जो भूख भी सह लेते हैं उसकी चाह में......, जो अपंग बने भी हँसते है | अपंग हो जाना कोई बड़ी बात नहीं....| यहाँ जीवन के लिए सब कुछ सहनीय है |
-तभी बाहर कुछ खटका हुआ | साधू राम चौंक कर उठ बैठा | बाहर कोई आया था, शायद शांति.......
......शांति ही थी | भीतर बत्ती जलती देखकर बाहर से ही उसने कहा -भीतर कौन है ?
साधू राम उठकर बाहर चला आया , कहते हुए - मैं हूँ |
कब आए..... ? -शांति ने पूछा |
आधा घंटा हो गया |
बाहर आकार साधू राम खाट पर लेट गया |
मैं मंदिर गई थी | -शांति ने स्पष्टीकरण दिया, जैसे उसकी आवश्यकता हो |
मैं समझ गया था |
कल क्यों नहीं लौटे ? -शांति ने उसके पायताने बैठते हुए प्रश्न किया |
कृष्ण ने नहीं आने दिया | साधू राम ने आँखें मूँद ली | दो क्षण तक चुप्पी रही फिर शांति ने पूछा - शादी ठीक हो गई न ?
बहुत अच्छी हुई | बड़ी धूमधाम से विवाह किया कृष्ण ने अपनी लड़की का |
चलो, अच्छा हुआ | इश्वर बेटियों की लाज रखता है | - फिर उसने पूछा - अपने क्या किया ?
इक्कीस..... | -फिर कुछ रूककर बोला -सभी मेरे चेहरे को देख रहे थे |
भला क्यों ?
क्यों क्या, शांति, यही सोचते होंगे की भाई की बेटी और शगुन न सिर्फ इक्कीस रूपये |
तो क्या हुआ ? .......सोचने वालों ने भी उतना ही दिया होगा, जितना वे दे सकते हैं | दिखावट में भला क्या रखा है | सामर्थ्यानुसार जितना दिया जाए , वही बहुत अधिक होता है |
तब साधूराम ने कहा - तुम ठीक कहती हो, शांति | हमारी जाती के लोग दिखावट - पसंद हैं | सभी बाहरी तड़क-भड़क में विश्वास करते हैं | घर में खाने को रोटी न हो, लेकिन कहीं बाहर जाने के लिए बढ़िया सूट चाहिए | घर में पाँच बेटियाँ हो, मगर इकलौते पुत्र के विवाह में दहेज़ के रूप में भारी रकम चाहिए | जानती हो, कृष्ण ने दहेज़ में पचास हजार रुपया नकद दिया........|
पचास हजार.......| -शांति की आँख फटी की फटी रह गई - हे राम | इतना कैसे दिया होगा उसने |
- इतने रूपये शांति को स्वप्न -मात्र लग रहे थे |
उसे किसी चीज की कमी नहीं, लेकिन फिर भी यह दहेज़-प्रथा उचित तो नहीं, शांति | सामर्थ्य हो या नहीं, यह प्रथा तो हमारे खोखलेपन का प्रतीक है | लडकियाँ सभी के होती हैं, कोई दहेज़ दे सकता है, कोई नहीं | इसी लेनदेन के कारण कभी किसी लड़के का, कभी किसी लड़की का जीवन-स्वप्न बिखर जाता है | लड़कियां बेचारी तो समाज - रुपी चक्की के दोनों पाटो में पिस जाती है | हम माँ-बाप बस निजी स्वार्थ के बारे में सोचते हैं | पुत्र ब्याहते हैं, दहेज़ की माँग करते हैं | पुत्री ब्याहनी होती है तो यही प्रयत्न रहता है हमारा की कम-से-कम दहेज़ देना पड़े | - फिर कुछ रूककर बोला - अपना समय अच्छा था, शांति | समाज में तब समानता थी | चाहे कोई धनी हो, चाहे गरीब | विवाह सभी सादगी से करते थे | सभी एक-दूसरे का आदर करते थे | बड़े अपने बडप्पन को दिखाना पसंद नहीं करते थे | उनका यही प्रयत्न रहता था की उनसे छोटे उन्हें अपना हमदर्द समझें, स्वयं को हीन न मानें | बड़ा अच्छा समय था हमारा |
तब शांति ने कहा - समय बदलते देर नहीं लगती | कल क्या था उसे कितना भी यद् कर लें, कैसे वही सब लौट जाएगा | -तब जैसे व्यंग्य - सा कसा उसने समाज पर - लोग पढ़-लिख गए है अब | पैसा बहुत हो गया है | पैसे के जोर पर एक-दूसरे को खरीदने की होड़ लगा ली है सबने | तरक्की का यह पहलू समाज के किस रूप को प्रदर्शित करता है | -तब स्वयं बात समाप्त करते हुए बोली - खैर,छोडो , हमें इस सबसे क्या लेना .......| हाँ , कृष्ण खुश तो था न ?
हाँ , खुश था ........, और तुम्हारे न आने पर उसने रोश प्रकट किया था | बोला, भाभी को देखे बहुत बरस बीत गए | उन्हें जरुर लाना था |
फिर अपने क्या कहा.......? - शांति ने उत्सुकता से पूछा |
कहना क्या था, एक ही बहाना है हम बूढों के पास......., जान ठीक नहीं थी उसकी |
चलो. ठीक ही कहा | अब सचमुच ही जान कितनी रही है | -धीमे से शांति ने कहा | साधूराम उसकी बात सुनकर कुछ न बोला | चुपचाप लेटा रहा | वह शांति की प्रकृति से भली प्रकार परिचित था |
कुछ देर तक दोनों चुप बैठे रहे | साधूराम आँखें बंदकर गुनगुनाने लगा था | शांति कुछ देर तक तो उसके मुख पर निहारती रही, फिर उय्हते हुए स्वयं से बोली - चलूँ , खाना तैयार करूँ |
साधूराम ने सुना तो बोला - मैं दो ही रोटी खाऊँगा |
क्यों, भूख नहीं क्या ? - शन्ति ने प्रश्न किया |
रास्ते में कुछ खा लिया था |
अच्छा.......| -कहकर शांति रसोईघर की ओर बढ़ गई | साधूराम आँगन में लेता कोई भक्ति-गीत गुनगुना रहा था | तभी उसका मस्तिष्क अपने विवाह की सोचने लगा - ' मेरे विवाह कितनी सादगी से हुआ था | कोई धूम-धमाका नहीं किया गया था | दो बैंड वाले मेरी घोड़ी के आगे थे और मैं दूल्हा बना था | मेरे मन में कितना उल्लास था, लेकिन कहीं कहीं दूर के कोने में भय की मूर्ती सिमटी बैठी थी | बार-बार मन सोचता था कि क्या वधु मुझे स्वीकार करेगी | जबकि मैं अपंग हूँ ....., मैं तब घबराहट में इतना भी नहीं सोच पा रहा था कि वधु द्वारा मैं जांचा-परखा जा चुका हूँ ..... '
-साधूराम का मस्तिष्क कुछ और पीछे हट गया | कुछ और .....
........और कितनी प्रतीक्षा करायेगा ? क्या जीते - जी बहू का मुख नहीं देखना ?
अभी तक तो साधू राम मामी के आग्रह को मजाक में ताले जा रहा था , लेकिन एकाएक वह गम्भीर हो गया | चुपचाप मामी के मुख को ताकने लगा | मामी ने तब पुन: कहा - क्यों ? अब बोलता क्यों नहीं ? चुप क्यों है ? क्या तू मेरी एक भी कामना पूरी नहीं करेगा ? .....
मगर मामी .......| - साधू राम कुछ कहना चाह रहा था, लेकिन शब्द उसके गले से बाहर ही नहीं निकलते थे |
मगर क्या .....?
मामी | मुझसे शादी कौन लड़की करेगी ? मैं ठहरा अपंग | -उसने तेजी से अपनी बात पूरी कर दी |
मन से तो अपंग नहीं न | काम भी तो करता है, किसी से माँग कर तो नहीं खाता | -मामी ने कहा |
इससे क्या हो जाता है ? मुझे कोई लंगड़ी-लूली ही मिल सकती है....., और यहाँ ऐसी कोई लड़की नहीं | -साधूराम के स्वर में दुःख था |
क्यों ? लड़कियों को ताकता रहता है, रे | -मामी ने उससे मजाक किया |
मामी..... | -साधूराम ने कहा - तुम समझती क्यों नहीं ?
मामी कुछ रूककर बोली - तो तू ब्याह की इसलिए नहीं सोचता कि कोई तुझे अपनी लड़की न देगा ...... ? यही बात है न ?
हाँ .....|
और अगर मैं लड़की ढूँढ लू तो ..... ?
यूँ ही किसी को कहोगी तो जग हँसायी होगी | कोई नहीं मानेगा | - साधूराम ने कहा |
और यदि मैंने ढूँढ ली तो...... ? -मामी मुस्कुरा पड़ी |
झूठ बोल कर ढूंढी होगी .......|
क्या मतलब......? -मामी को आश्चर्य हुआ |
यही कहा होगा कि मेरा बेटा सुन्दर-स्वस्थ है ...... |
तू निरा पागल है | - मामी ने उसकी बात बीच में ही काट दी - मैं भला इसा क्यों कहने लगी | अरे | तुझे सावित्री ने स्वयं ही अपनी बेटी शांति के लिए चुना है |
क्या कह रही हो तुम ? -साधूराम को एकाएक विशवास नहीं आया |
झूठ नहीं | उसने कल मुझसे स्वयं कहा है | - फिर बोली - मेरे बेटे में कमी ही किस बात कि है ?
अच्छी - भली दूकान है , अपना घर है , भगवान् का भक्त है , उसे और क्या चाहिए | हाथ को उसे चाटना है ? ...... बेटा | मन को अपंग नहीं बनाना चाहिए | मन पूर्ण हो तो कभी कोई बाधा सामने नहीं टिक सकती | एक हाथ नहीं तो क्या हुआ ? तुम्हे कितनी बार कहा है, हाथ कर्म के प्रतीक है, कर्मण्यता के नहीं ....... |
-और तब साधू राम ने सोचा - 'हाँ , हाथ कर्म के प्रतीक हैं , कर्मण्यता के नहीं | कर्मण्यता का प्रतीक तो मस्तिष्क है, मन में उठने वाली जिज्ञासा से ज्ञान को पूरा करने की लग्न है |'
अब क्या सोचने लगे ? .....मैंने सब तय कर लिया है | पूर्णिमा के दिन शगुन आएगा | -मामी तब साधूराम के सर पर हाथ फेरने लगी | उसने आँखें बंद कर ली थी |
शांति ने उसे पुकारा की उसने हड़बड़ा कर आँखें खोल दी | खाना पककर तैयार हो गया था |
साधूराम रसोईघर में आकर चुपचाप चौकी पर बैठ गया | शांति ने उसे खाना परोस दिया |
खाना समाप्त कर वह उठा तो शांति ने पूछा - दूध लोगे ....... ?
हो तो दे देना |
बरामदे में लगे नल से साधूराम ने कुल्ला किया और फिर घर के छोटे से आँगन में टहलने लगा | शांति अपना खाना पका चुकी थी | थाली में परोसकर बाहर आँगन में बिछी खाट पर बैठकर खाने लगी | साधू राम भीतर से अपना बिस्तर ले आया और उसे दूसरी खाट पर बिछाकर लेट गया | शांति चुपचाप खाना खाती रही ......
....... ऊपर तारों भरा आकाश था | झिलमिलाते सितारे साधूराम को बहुत अच्छे लगते हैं | वह उन्ही को निहार रहा था | शांति रसोईघर का काम समाप्त करने के उपरान्त अपने बिस्तर पर लेट चुकी थी | शायद उसकी आँख लग चुकी थी , क्योंकि उसके बिस्तर पर किसी प्रकार की हलचल न थी | लेकिन साधूराम अभी भी जाग रहा था और निरंतर टिमटिमाते तारों को देख रहा था | सितारे उसे क्रमश: अपने समीप आते प्रतीत हो रहे थे | यह सब कुछ स्वप्न था | मात्र एक स्वप्न | साधूराम का सम्पूर्ण जीवन ही सपनों से लिप्त है | बीते क्षण उसे स्वप्न-सम ही लगते हैं | क्या था वह कभी , कभी क्या हो गया | कैसा था कभी उसका जीवन , कभी कैसा हो गया |
कभी क्या कुछ सोचता था, कभी कुछ और सोचने लगा | कभी क्या उससे कहा गया , कभी कुछ और कहा जाने लगा | कभी-कभी तो साधूराम स्वयं को कठपुतला कहकर पुकारने लगता था |
- कठपुतला ....... |
- जिसका अपना कुछ भी नहीं | न कोई विचार , न संस्कार, न जाति, न समाज, न ह्रदय, न आत्मा | कुछ भी तो नहीं | धागों की ताल पर जिसे अँगुलियों के निर्देशन में नाचना पड़ता है | कैसे भी नचा लो | अपने लिए उसका कुछ भी नहीं | दूसरों को हँसाना है, हँसा लो | दूसरों को रुलाना है, रुला लो | स्वयं के लिए हँसी रही नहीं, आँसू भी है अपने तो दूसरे की यद् में बहते हैं |
पलके अभी झपकी ही थी, इस मंतव्य से की कोई सपना ही उसकी रात को बिता दे और वह अभी कुछ विचार ही रहा था की कहाँ जाए, किस दिन को यद् करे कि सतीश का नाम उसके मानस-पटल पर अंकित हो जैसे कोई बात उसे एकाएक स्मरण करा बैठा | झट से उठ बैठा वह | शांति कि और देखकर बोला - शांति | सुनती हो ...... | ...... सो गई क्या ..... ?
उसकी आवाज सुनकर शांति हडबडा कर उठ बैठी | उसकी और देखते हुए बोली - क्या है .....? क्या हुआ ..... ?
तब उसने कहा - तुम्हे बताना ही भूल गया था मैं, रतनलाल मिला था मुझे | बहुत पहले बम्बई गया था वह | सतश मिला था उसे वहाँ | ..... उसने बताया , अब वहीँ रहता है | ससुर के साथ साझें में काम है उसका | बहुत पैसा है अब उसके पास ...... ?
एकाएक यह सुनकर हिलोर-सी उठी उसके मन में | पूछा घर का पता ..... ?
वह तो उसे भी नहीं मालूम, बाजार में मिला था | दो ही मिनट बात हो सकी उससे | न उसने उसे पता बताया, न घर आने को कहा ...... | साधूराम का स्वर शांत था |
चाचा के लड़के से भी उसने अजनबियों -सा व्यवहार किया | कितना बदल गया | हमारे बारे में कुछ नहीं पूछा उसने ....... ? -तब उत्सुकता से पूछा शांति ने |
हाँ कैसे हैं वे, सब | ....... और अब उसे याद ही क्या रहा होगा हमारा | -साधूराम की आँखें बह निकली |
लगता है, अब उसे याद करने का कोई फायदा नहीं | अब कभी नहीं आएगा | हमें भूल गया है वह .....|
-शांति की आँखें भर आई |
चलो, है तो अच्छा भला | इसकी खबर तो लग गई ....... | -साधूराम ने आँखें पोंछते हुए कहा |
.......और उसे भी मालूम पद गया की हम अभी जी रहे हैं ...... | ...... सुखी रहे | हमारी जिंदगी अब कट ही जाएगी .......| -शांति ने भी अपनी आँखें पोंछ ली |
लेकिन शांति मुझसे अब काम नहीं होता ......| -साधूराम जैसे फिर विवश हो उठा, अपने को रोक नहीं सका |
.......मुझसे भी क्या होता है | लेकिन करना तो पड़ेगा | इसके सिवा चारा ही क्या | -शांति ने जैसे उसे वास्तविकता का एहसास करवाया |
काश कोई सहारा मिल जाता |
साधू राम के मन में एक नई चाह उभरी |
सतीश के सिवा और कौन है ..... ?
शांति ने पूछा |
कोई भी ...... |
अपना ही जब सहारा नहीं बना, तो दूसरा ......... |
-शांति ने सच्चाई का एहसास करवाया उसे |
कोई ऐसा जिसका अपना कोई न हो | जिसे चाह हो एक घर की |
- उसने अपनी कल्पना आगे बढाई |
ऐसा कौन होगा ...... | भूल जाओ | कोई नहीं मिलने का | यूँ ही अकेले रहना है | कोई नहीं आएगा...... | -तब जैसे उसे रात का ध्यान हो आया , बोली - ..... अब सो जाओ | तुम थके हुए हो |....
और तब दोनों निराशा से भरे बिस्तर पर लेट गए | कुछ ही देर में उनकी आँख लग गई | साधूराम का मन उड़ता हुआ उन बिखरे क्षणों को समेटने में लग गया था एक बार फिर ....... !
साधूराम अब इस विषय पर अधिक नहीं सोचता था | सोचता था जो हो रहा है , अच्छे के लिए ही | सतीश के एक लड़का हो चुका था | और इच्छा के बावजूद भी उन्होंने केवल बधाई का पत्र डाला था | शांति कहती रहती - पोता है एक बार देख आएं ..... |
एक बार गए तो फिर सारी कड़ियाँ टूट जाएंगी | महिना पंद्रह दिन वहाँ लग गए तो दुकान फिर उखड जाएगी | पहले भी सारा काम लगभग चौपट हो गया है | - साधूराम अपनी जगह सही था | उसे मालूम था, वहाँ टिके रहना उसके बस की बात नहीं | औए अब उसे इस बात का भी अनुभव हो गया था कि इतने लम्बे समय तक दुकान बंद करके उसे घाटा ही हुआ है | सारे पक्के ग्राहक टूट गए थे उसके | अब बड़ी मुश्किल से दो प्राणियों के गुजारे लायक ही निकलता है, और कुछ नहीं | कभी-कभी तो दिन-भर मख्खियाँ मारता रहता है |
अगले पत्र में सतीश ने चुपचाप पत्र के साथ अपने पुत्र के दो चित्र भेज दिए | शांति को उन्हें बार-बार चूमकर ही संतोष करना पड़ा | इसी तरह दो बरस बीत गए | सतीश के महीने में दो-तीन पत्र आ जाते थे और साधूराम एक पिता का फर्ज समझ कर उनका उत्तर दे दिया करता था | .... मगर एक दिन फिर भावनाओं का तूफ़ान उमड़ आया उसमें | पुन: सुप्त भावनाओं में आक्रोश भर गया | सतीश का पत्र पढ़कर साधूराम को उसी प्रकार उत्तेजना महसूस हुई , जैसे पहले जब कभी उससे पूछे बिना सतीश कोई काम कर दिया करता था |
शांति ने जब पूछा - क्या लिखा है .......?
तब साधूराम की निगाह बरबस अपने टूटे -फूटे मकान की और उठ गई | उसने एकाएक शांति की बात का कोई जवाब नहीं दिया | बस केवल सामने की टूटी-फूटी दीवालों को देखता रहा और बोला - शांति | दुनिया वालों के एक-एक करके सपने पूरे होते हैं | मेरे एक-एक करके सभी सपने टूट गए ..... |
आखिर उसने क्या लिखा है .....? -शांति ने पुन: पूछा |
तुम्हारे बेटे ने अपना मकान खरीदा है |
-साधूराम ने व्यंगपूर्ण स्वर में कहा |
शांति एकाएक खुश हो गई | बोली- तो इसमें ऐसे सोचने की क्या बात थी - उसने तुम्हारे सपनों को कहाँ तोडा है | मकान बनाया है | अपनी कमाई है | हमारा सिर तो और ऊँचा कर दिया है उसने | देख लेना, मकान के बाहर तुम्हारा नाम ही लिखवाया होगा उसने ...... |
और ये मकान, शांति, ये किसका है ? मेरा ही है क्या, उसका नहीं ? जो मेरे बार-बार कहने पर उसने तनिक भी परवाह नहीं की | एक बार भी नहीं सोचा जहाँ बाप रहता है पहले उसे तो सुन्दर बनवा दूँ | कितनी बार कहा उससे , लेकिन जवाब यही दिया की बचत नहीं है , कैसे भेजूँ ..... | और अब अपना मकान बनवा लिया | साफ़ कर दी सारी तस्वीर, मुझे वह अपना नहीं समझता, यह मकान अब उसे काट खाता है ...... | -साधूराम की भावनाएँ ऐसे ही तो हमेशा उमडती थी कि वह एक ही चीज से इतना लिपट जाता था कि उससे छुटकारा पाना दुर्भर जान पड़ता था उसे |
तुम कब तक इन भावनाओं से लिपटे रहोगे | तुम्हारी इन्हीं भावनाओं के कारण ही तो हम आज यहाँ बैठे हैं | सतीश ने तो नहीं कहा था हमें यहाँ आने को | हम वहां होते तो गृह-प्रवेश की सारी रस्म हम अदा करते........
तब साधूराम बीच में ही बोल पड़ा - मैं यदि भावनाओं की क़द्र करता हूँ तो तुम बस छोटी-सी बात पर दूर-दूर कि सोचने लगती हो | तुम्हारी कल्पना यथार्थ को बिलकुल भूल जाती है | हम वहाँ होते तो गृह-प्रवेश की रस्म अदा करते, कैसे कह रही हो यह तुम | हम वहाँ नहीं थे, पर इसका मतलब यह तो नहीं था कि वह दो पैसे कि चिट्टी डालकर हमें बुला भी नहीं सकता था.... ? हम उसके लिए हैं ही क्या ? हमसे उसका सम्बन्ध ही क्या रहा है | चिट्टियों के पुल पर चलते-चलते एक दिन ऐसा तूफ़ान आएगा कि तुम और मैं देखते रहेंगे और हमारा बेटा कहलाने वाला ये सतीश देखना तो क्या हमें याद करना भी भूल जाएगा | -साधूराम के इन शब्दों ने शांति के मन में सिहरन पैदा कर दी | उसने तो ऐसा कभी नहीं सोचा था | लेकिन साधूराम भावनाओं के वेग में कभी-कभी ऎसी बातें कह जाता था की भविष्य का चित्र आँखों के सम्मुख खींच कर भय व्याप्त हो जाता था अस्तित्व में | अपने शब्दों से वह भी डर गया था | अभी तक पहले उसने कभी ऎसी कल्पना तो नहीं की थी, लेकिन आज एकाएक ऎसी बात मुख से कैसे निकल गई | अपने जीवन के लिए अपने ही मुख से निकाली भविष्यवाणी |
कुछ देर ठहर कर वह फिर बोला - लेकिन शांत स्वर में - तुमने ही तो मेरे साथ बैठकर उसके छुटपन से लेकर जवानी तक कितनी ही कल्पनाएँ की थी | ठीक है वह अफसर बना, उसकी शादी भी हो गई, सुन्दर-सा लड़का हो गया, अब घर भी बना लिया है उसने | लेकिन हमारे लिए क्या रहा | मैं निज स्वार्थ भूल सकता हूँ | भूल सकता हूँ की उसकी तनख्वाह से मैंने तीर्थ जाने की सोची थी, वह टाल गया | भूल गया हूँ इसको भी की मैंने कभी सोचा था तम्हारे गहने फिर बनवा दूँगा | लेकिन शांति, मेर्स प्यार | उसमें तो कोई स्वार्थ नहीं | फिर उसने मुझे वही क्यों नहीं दिया ? -तब आसूँ फूट पड़े उसकी आँखों से, लेकिन वाणी निकलती रही - मेरा अपना कौन था, शांति | जो कुछ भी था इसी घर में ही तो था | उसकी भी तो लाज नहीं रखी उसने, असका ही मान रख लेता तो कोई बात थी | ...... क्या बिगड़ जाता उसका यदि इसको भी ठीक करवा देता | मेरे बाद ये घर उसका ही तो है | .......लेकिन, शांति ऐसा होता तब न | उसके दिमाग में तो इसे बेचने की बात अडी पड़ी थी | उसने अपना कोई रिश्ता ही कायम नहीं कर रखा इस घर से ........, और शांति, ये घर मेरा, मेरा सगा है, मेरा बड़ा भाई है | ......इसको ठीक करवाने से बेहतर उसने एक नया घर बनवा लिया | एक घर, जिसे वह सिर्फ अपना कह सके.... जो सिर्फ उसका है | सुना नहीं तुमने, उसने लिखा है मैंने अपना घर बनाया है | .... मेरे घर से दूर और यहाँ तुम कहती हो उसका घर, मेरा घर एक ही है | .... एक ही होता शांति, ......तो वह पहले ही न मुझे लिख देता | मेरे ही हाथों से उसकी नींव डलवाता..... | -तब आँसू बह निकले थे उसकी आँखों से |
भावनाओं का वेग
शांत हुआ तो शांति ने पूछा - दिल्ली जाओगे .......?
क्या करना है ........|
-धीमे साधूराम ने कहा |
जब उसने लिखा है, तो चले ही जाओ | उसे समझ होगी, तो जान ही जाएगा......, नहीं तो हमारी जिन्दगी तो कट ही जाएगी अब ..... | -शांति के शब्दों में करुणा थी | लेकिन उस करुणा ने साधूराम के मन को और ढाढास बंधाया | तब उसे लगा वह अकेला नहीं रहा सतीश के बिना, शांति भी उसके साथ है | सदा ही साथ रहेगी | कुछ भी क्यों न हो जाए वह उसका साया बनी रहेगी | और तब साधूराम ने बजाए भावनाओं में बहकर कुछ अनाप-शनाप कहने के उससे कहा ....... परसों चलेंगे दोनों ही ... |
नहीं....., मैं नहीं जाऊँगी | दोनों गए तो रूक जाना पड़ेगा | .....बेहतर है तुम्हीं जाओ, और दो-एक दिन बिता कर लौट आओ ......| साधूराम ने शांति का कहा सुनकर महसूस कर लिया की उसके दिल में भी पुत्र के प्रति खेद समा गया है | उसकी भावनाओं को भी चोट लगी है और अपनी ममता को दबाने के लिए वह पुत्र से दूर हटकर ही रहना चाहती है | तब साधूराम चाहकर भी शांति से अधिक आग्रह नहीं कर सका |
साधूराम रात के समय दिल्ली पहुँचा | सतीश का मकान ढूँढने में उसे अधिक परेशानी नहीं हुई | घर पर सतीश-सुमिता दोनों ही थे | पिता को आया देखकर सतीश ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा - मुझे पूरी उम्मीद थी कि आप जरुर आएँगे ...... |
तब सुमिता ने कहा - माँ जी को भी ले आते, बाबूजी ...... |
तब साधू राम ने बहाना बनाते हुए कहा - उसकी तबीयत कुछ ठीक नहीं थी..... |
क्यों ? क्या हुआ उन्हें ? -सतीश ने पूछा |
होना क्या है, बुढ़ापे में कुछ न कुछ तो बीमारी लगी ही रहती है | -अधूरम ने बात टाल दी | कुछ देर तक कमरे में शांति व्याप्त रही. फिर उसी ने कहा - गृह-प्रवेश कब किया ..... ?
आज दस दिन हो गए हैं |
- सतीश को बताते हुए कुछ झिझक महसूस हुई |
उससे दस दिन पहले बाप को खबर नहीं कर सकते थे ........?
-कटाक्ष करते हुए बड़े शांत स्वर में कहा साधूराम ने | शायद वह बड़े प्यार से पुत्र के दिल को छेड़ना चाहता था | उसकी यह बात सुनकर सतीश ने बड़े सयंमित स्वर में कहा - बाबूजी | दरअसल उससे दो ही दिन पहले महूर्त पक्का हुआ था, बाबूजी | बस तो ..... | सतीश से एकाएक कुछ जवाब न बन पड़ा , फिर बोला, बनवाने में कुछ इतना व्यस्त था कि समय ही नहीं निकाल पाया आपको लिखने का | एकाएक जमीन का सौदा हुआ और बनवाना पड़ा | और महूर्त भी तभी का निकलता था | ..... मैंने आपको पत्र तो तभी लिख दिया था ..... |
ठीक ही कहते हो, बेटा | अब जो भी करते हो ठीक ही है | लेकिन माँ-बाप का भी जरा ध्यान रख लेना चाहिए | कुछ उनकी भी आशाएँ होती हैं | -साधूराम ने स्वयं को अनुपस्थित रखते हुए कहा |
मैंने बाबू जी, कभी ऐसा काम तो नहीं किया जिससे आपको दुःख महसूस हो | मैं तो सदा ही आपको हर बात लिख देता हूँ | -सतीश का स्वर शांत ही था |
यह सुनकर साधूराम ने कहा - हाँ, तभी तो कहता हूँ तुम्हारी माँ से कभी-कभी कि हम काठ के पुतले हैं | जमाना जिधर नाचेगा, नाचना पड़ेगा | .....जिसकी जितनी बड़ी अंगुलियाँ होंगी, वही तो आसानी से नाच सकेगा | -और तुम ...... तुम किसी से कम हो क्या .......?
सतीश को उसकी बात सुनकर आश्चर्य हुआ कुछ | जैसे विश्वास न कर पा रहा हो, बोला ये बाबू जी आप कैसी बातें करने लगे |
क्यों, मैंने ऐसा क्या कुछ कह दिया जो तुम हैरान हो गए हो ? कुछ गलत तो नहीं कहा मैंने | दुनिया का जो दस्तूर बन गया है उसी की तो बात कर रहा हूँ | माँ- बाप कठपुतले नहीं बन कर रह गए अपनी संतान के हाथों क्या ? ..... पर हाँ ......... -तब जैसे एकाएक याद हो आया है उसे | लगा जैसे कुछ गलत कह गया हो कुछ | तब बोला - माँ - बाप वही काठ के पुतले बन जाते हैं जो अनपढ़ हो, गरीब हों, गंवार हों और उनका बेटा बड़ा अफसर हो - बड़ा अफसर , इज्जत-मान और पैसे वाला ......|
तब सतीश कुछ झल्लाया | स्वर भी कुछ तीव्र हुआ उसका, बोला - बाबूजी | आप ये क्या कहे जा रहे हैं | मैंने ऐसा तो कभी नहीं सोचा या आपने ही ऐसा कहते कभी मुझे सुना हो कहिए ...... ?
........कहते नहीं, कर के दिखाते तो देख लिया यही सब ......| कोई भी नहीं आया था क्या महूर्त में .......?
मैं समझा नहीं......|
मैं पूछ रहा हूँ क्या कोई दोस्त-यार भी नहीं आया था तुम्हारा और क्या सुमिता के माता-पिता भी नहीं आए थे ?
.....वे सब लोग तो यहीं थे, दिल्ली में ही | -सतीश झल्ला रहा था निरंतर, शायद उसे यह आशा बिलकुल नहीं थी कि उसके पिता इस तरह नाराज हो गए होंगे उससे |
.....और मैं दिल्ली से बाहर था ....., तब क्यों तुम सब कुछ कर चुकने के बाद मुझे दो लाइन लिख कर परेशान कर देते हो ? मेरे बिना तुम्हारा सब काम पूरा हो जाता है, फिर मुझे ये झूठी इज्जत देने की खातिर क्यों कर व्यर्थ में अपना समय बर्बाद करते हो .....? -फिर कटाक्ष करते हुए उसने कहा -जरा सोचो, तुम कितने काबिल अफसर हो, तुम्हारा हरपल कितना कीमती है | -तब मुझ जैसे गंवार की खातिर इतना समय व्यर्थ क्र क्यों अपनी तरक्की की राह में रोड़ा अटकाते हो .....| -साधूराम का स्वर कुछ उग्र हो चूका था | तब सुमिता ने बात दबानी चाही - बाबूजी | आप थके हुए हैं | आराम कीजिए .....| लेकिन साधूराम शायद अब कुछ और भी कहना चाहता था, जैसे उसे इस बात का अहसास हो चुका था कि सतीश से इस विषय पर बात करने का अवसर फिर नहीं मिलेगा | इतनी देर वह उसके पास फिर नहीं बैठ सकेगा और उसे यूँ ही मन की बात मन में रखे लौट जाना पड़ेगा | इसलिए बोला - तुम लोग मेरे आराम की फिक्र क्यों करते हो | मैं जानता हूँ कब मुझे आराम करने को मिलेगा ......|
चैन की नींद एक ही दिन सो पाऊँगा अब तो लगता है और उस दिन भी मत पूछना मुझे | पर तब लिख तो नहीं पाओगे मुझे कि, 'मेरा बाप मर गया | ' मेरे सिवा और तो कोई नहीं है बाप तुम्हारा ......|
बाबूजी......| - तब सुमिता केवल इतना ही कह सका | उसका मन किसी अज्ञात आशंका से धड़कने लगा था | वह परेशान हो उठी थी, अपने श्रवसुर का यह रूप देखकर | पहली बार जब साधूराम यहाँ आया था, तब उसने उसे ऎसी बातें करते नहीं देखा था |
लेकिन साधूराम को इसकी क्या खबर | वह तो कहे जा रहा था - हमने तेरे लिए क्या, सतीश | याद करने की बात नहीं , यह हमारा फर्ज था | लेकिन तूने , तू आज ये बता, तूने हमारे लिए क्या किया .....?
बाबूजी | आपने मुझे मौका ही कब दिया ? मैं तो आपको दिल्ली लेकर आया था अपने पास | मगर आप यहाँ टिके ही नहीं | इसमें मेरा कुछ दोष हो तो बताइये ? -सतीश समझ गया था कि साधूराम क्रोध में है | उसके मन में जिस बात के कारण आक्रोश उमडा है, वह तूफ़ान का रूप धारण करना चाहता है, और अपनी तरफ से एक प्रयत्न किया उसने | शायद यही कुछ उसके युवा-मन की बात थी |
नहीं, दोष तुम्हारा नहीं, मेरा है | मैं कुछ कर जो नहीं सका | जो मैं तुम्हारी दिल्ली में रहने के काबिल नहीं था | लेकिन इस दिल्ली में लाकर तुमने मुझे क्या बना कर रख छोड़ा था | एक घर की कीड़ा | जिसकी जगह सिर्फ दराज के अंधेरे कोने में होती है | तुम्हारी घर की ये रोशनी, तुम्हारे आसपास की ये रंगीनी, तुम्हारी ये महफ़िलें तुम्हारे लिए ही तो हैं | मैं कहीं उनमे घुल मिला जाता तो जहर न घुल जाता |
तुम्हारे सगे-साथी बीमार न पड़ जाते | बोलो तुमने कभी कहा मुझे बंद कमरे से बाहर निकलने को ? तुमने कभी चाही अपने चेहरे की हँसी का एक टुकडा मुझे दे देने की.....?
......आपको मेरा हँसना बुरा लगता है, मुझे आज पता लगा | ले लीजिए, मेरे चेहरे की हँसी | बाबू जी, यदि आप हँसना चाहे तो अब भी हंस सकते हैं | किसी ने आपको रोका है | आपने खुद ही तो कहा था हँसना-गाना आपको इस कदर अच्छा नहीं लगता | मैं आपसे जबरदस्ती तो नहीं कर सकता था..... | -सतीश का स्वर कुछ उग्र हो उठा था |
बाबू जी .....| तब सुमिता केवल इतना ही कह सकी उसका मन दुनिया से कोसों मील दूर अपने में लीन रह सकते थे | कभी मौका दिया था तुमने मुझे अपनी बात कहने का, अपने अरमान कहने का | जानते हो कितने अरमान थे मेरे , कितने सपने लिए थे मैंने तुम्हारे सहारे.......लेकिन है कोई ऐसा जो पूरा हुआ | तुम्हे दिखता हो तो कहो |....
लेकिन इसमें मेरा क्या दोष है ......|
-अपने प्रत्येक शब्द पर जोर डालते हुए सतीश ने कहा |
तुम्हारे कुछ दोष नहीं, जैसे मैंने तुम्हें कभी कही ही नहीं अपने मन की बात | तुमने अपना मकान बनवा लिया, क्या उस मकान की कभी परवाह की कभी तुमने जहाँ तुम्हारा बचपन बीता था, जहाँ तुम्हारे बाप ने अपनी जिन्दगी बिता दी ? तुम्हें कहा था माँ के गहनों के लिए, नहीं बनवाए, कुछ जवाब ही नहीं दिया |
तुमसे सबसे पहले लिखा था, हमें तीर्थ यात्रा करवा दो....., करवा दी ? कितनी बार देशाटन कर लिया हमने ? ..... ' -साधूराम के स्वर में उग्रता निरन्तर बढती जा रही थी |
तब सतीश ने भी कडुवे स्वर में कहा - मैंने आपको मन भी तो नहीं किया था, जो आप इतना कह रहे हैं | बचत होती तो सब करवा देता | आपकी हर इच्छा पूरी हो जाती |
हाँ, हाँ, हर इच्छा पूरी हो जाती | लेकिन जानती हो कब ? जब चिता को मेरी आग लग जाती | .......तुम कहते हो तुम्हारे पास बचत नहीं - फिर भी आए दिन पार्टियाँ करते हो, खुद आए साल घूमने जाते हो | ....... तुम अपने लिए मकान खरीद सकते हो, अपनी बीवी के लिए गहने बनवा सकते हो , फिर भी कहते हो मेरे पास बचत नहीं |
लेकिन जानते हो मेरा मकान आज टूटा-फूटा क्यों है | तुम्हारी माँ के गहने कहाँ गए ? हम आज तीर्थ पर क्यों नहीं जा सकते .....? जवाब दो....., दे सकते हो......?
लेकिन तब सतीश माथा पकड़ कर बैठा रहा | साधूराम रुका नहीं, बोला - ..... अब बोलो, बोलते क्यों नहीं ? भूल गए क्या तुम्हारी पढाई के लिए मैंने रात-इन जी तोड़ मेहनत की अपने एक हाथ से | भूल गए कि तुम्हारी माँ के गहने दिल्ली के ही एक सुनार को बेचे थे मैंने तुम्हारी पढाई के लिए ? और यह भी सोच नहीं सके कि तीर्थ या कहीं और घूमने भी नहीं जा सके तो तुम्हारी पढाई की खातिर, तुम्हे ऊँचा इंसान बनाने की खातिर | ......
......और आज मैं कुछ नहीं कर सकता तो इसमें मेरा क्या दोष | काश | मैं तुम्हे जवान बनाते-बनाते खुद बूढा न हो गया होता....., कौन पूछता तब तुम्हें ? कौन तुम पर आस लगाए बैठा रहता | और आज तब क्या मैं अपने भाग्य पर इस तरह आँसू बहाता ? ......लेकिन मेरी किस्मत.....| - तब साधूराम की आँखें बह निकली | लेकिन सतीश भी अब बिना कुछ सोचे-समझे कहने लगा था -ठीक है, आपने मुझे पढाया, लेकिन आप यह जता कर मुझे क्या कहना चाहते हैं ? मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा | आपने जो कुछ भी किया आपका फर्ज था | अब आप पुरानी बातें आज यहाँ खोदने पर क्यों तुले हुए हैं ? मैंने क्या गुनाह किया है, जो बजाए शाबासी के मुझे लताड़ रहे हैं ? .......
तब साधूराम ने कहा, स्वर कुछ करुण बन गया था आँसूओं के कारण उसका - आज मेरी हर बात तुम्हे लताड़ लग रही हैं, कोई बात नहीं | आज तुम बड़े आदमी बन गए हो न | मुझ जैसे छोटे आदमी की बात भला कैसे सहन कर सकते हो.......| मैं तो अब स्वयं को तुम्हारे अर्दली से भी गया गुजरा महसूस कर रहा हूँ ......| -तब एकाएक वह फिर उग्र हो उठा - तुम आज इतना बोल रहे हो मेरे सामने बहुत घमंड आ गया है न तुममे | बहुत बड़ा आदमी समझने लगे na स्वयं को | पर जानते हो तुम्हे इस काबिल किसने बनाया है | मैं तुम्हें न पढाता तो न आज तुम इस घर के मालिक होते, न बड़े अफसर होते और न ही यह सुमिता तुम्हारी ब्याहता होती | तुम तब कहीं झोपड़ी में रहते, पेट भरने के लिए मजूरी करते और कोई अनपढ़-गंवार तुम्हारी पत्नी होती.....|
बाबूजी ..... | -और तब सतीश आवेश में चिल्ला उठा - आप बेवजह अपने मुख से बुरी बातें निकाल रहे हैं | पिता होकर भी आप मेरी तरक्की से खुश नहीं | मैं सुबह से शाम तक नौकरी करता हूँ तो अपने सुख के लिए | पसीना बहाकर भी यदि अपने लिए सुख-साधन न जुटाऊँ तो मुझ जैसा मूर्ख कौन होगा | ........मुझे अपनी सोसाइटी का भी ध्यान रखना है | इज्जत बनाए बिना मेरा जीना भी दुर्भर है, और आप हैं की यदि आपका बस चले तो मुझे भी एक गंवार बना कर रह छोड़ें, जिस पर सारी सोसाइटी के लोग मेरी खिल्ली उड़ाएँ | .......मैं आपकी ये तमन्ना पूरी नहीं कर सकता, चाहे कुछ भी हो जाए...... |
तब साधूराम ने कहा -शुक्र है, तुमने आज स्वयं ही मुझे गंवार कह दिया | यही भुत है जो तुमने मुझे दिया .......|
तब तक सुमिता में भी आक्रोश उमड़ आया था उसके प्रति, वह बोली - औरों के मान-बाप खुश होते हैं अपने बच्चो को तरक्की करते देखकर......, और, और एक आप हैं जो जल रहे हैं | कैसे हैं आप जो पिता होकर भी अपनी संतान को खुश नहीं देख सकते ? आपको हमसे इस कदर ईर्ष्या क्यों ? - और इस आक्रोश ने सुमिता की आँखों में आँसूं भर दिए | सदूराम की इस प्रकृति को देखकर उसे अवश्य ही दुःख पहुँचा था |
और तब साधूराम चीख-सा उठा था -मैं तुमसे ईर्ष्या करता हूँ......., मुझे जलन होती है..... हाँ, हाँ, मैं कुत्ता हूँ न , मुझे जलन होती है तुम्हे हड्डी खाते देखकर..... |
बाबूजी.......| आपको यहाँ चिल्लाने की कोई जरुरत नहीं...... | - तब सतीश ने तीखे स्वर में कहा था |
मरें बाबूजी......, मैं अब किसका बाप हूँ | याद रखो सतीश, मैं जीता रहा तो कभी तुम्हारी शक्ल देखने नहीं आऊँगा...... | भूल जाओ की कोई तुम्हारा बाप भी था | तुमने मुझे जो इज्जत दी मरते दम तक मुझे याद रहेगी..... | -तब उठता हुआ बोला - जा रहा हूँ मैं, कभी मेरी आँखों के सामने न आना | मैं तुम्हारे लिए, तुम मेरे लिए मर चुके हो | कुत्ते-नीच , तुम्हारा यही रूप मुझे याद रहेगा...... |
बस ....... |
इतनी ही बात हुई थी | जिसके परिणामस्वरूप वे फिर अब तक नहीं मिले | नींव के पत्थर सीलन के कारण कच्चा पड़ते-पड़ते एकाएक टूट गया | उन्होंने भूलने का प्रयत्न किया स्वयं को | यह धारण कने की चेष्टा की कि उनका उससे कभी भी किसी प्रकार का संभंध नहीं रहा | यह वास्तविकता है | लेकिन इसी वास्तविकता को अपनाने के लिए इन्होने क्या कुछ सांत्वना नहीं दी स्वयं को | साधूराम कितना प्रयत्न करता है किसी के सामने उसकी आँखें न बहें, लेकिन अक्सर ऐसा हो नहीं पाता | उसे आँसू बहाते कोई देखता है तो झट से समझ जाता है कि कोई दुःख इस व्यक्ति को भीतर-ही-भीतर खाए जा रहा है |
अब तो भूल जाना चाहता है वह उसकी सब गल्तियाँ, देखना चाहता है बस उसकी अपनी आँखों के सामने खडा | लेकिन ऐसा होता न देखकर निराश हो उठता था और निराशा की चरम-सीमा पर पहुँच कर सब बीते दिन उसे याद आते हैं और वह तड़पता है | तब कोई सांत्वना देता है उसे | निराशा से खींच बाहर निकालने के प्रयत्न में कोई कहता है -
जीवन क्या है ?
-मधुरिम स्वप्न, अज्ञात का अविनाशी का |
स्वप्न कब समाप्त होगा, तब क्या होगा ? - यह विचारणीय नहीं , साधूराम | यह जीवन है, बस | जीवन एक नाटक है और इस नाटक के तुम पात्र हो | तुम्हे केवल अभिनय करना है - ऐसा अभिनय जिसे देखकर दर्शक को यह आभास न हो कि कहीं इसमें नाटकीयता का पुट है | तुम्हारा अभिनय वास्तविकता का घोतक होना चाहिए | नाटक की कथावस्तु-संवाद इत्यादि परिस्थितियों के अनुसार तुम्हे ज्ञात होते रहे हैं और अंत तक होते रहेंगे | समय से पूर्व कुछ जान लेना लाभदायक नहीं होता - हो सकता है आगे का पूर्वज्ञान तुम्हे और निराशावादी बना दे या तुम इतने हर्शमयी हो उठो कि अपने दैनिक जीवन के कार्य - कलापों को भूल जाओ | ऐसा होने पर तुम अपने वर्तमान को भूल जाओगे जिससे सम्पूर्ण नाटक की कड़ियाँ बिखर जाएंगी | बेहतर है, तुम अपने वर्तमान में मग्न रहो, आगे-पीछे की कुछ मत सोचो | स्वप्न का अंत अभी सोचा तो कड़ियाँ टूट जाएंगी औत तुम पूर्णत: निराशावादी बन जाओगी .......|
- और यह सुनते-सुनते ही साधूराम की आँख लग गई थी | |
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