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अचानक साधू राम की आँख खुल गई | भीतर कमरे में हो रहे 'खट-खट' के स्वर को सुनकर वह चौकन्ना हो गया | कमरें में उसे किसी की उपस्थिति का आभास हुआ | कुछ क्षण तब उसके कान भीतर की आहात सुनने का प्रयत्न करते रहे | स्वप्न नहीं वास्तिविकता थी | भीतर कमरे में कोई था | साधूराम धीरे से उठा, साहस कर दबे पाँव कमरे की और बढ़ा | कमरे की बत्ती का खटका दरवाजे के समीप ही था | किसी प्रकार की आहट किये बिना उसने हाथ आगे बड़ा कर बत्ती जला दी और तेजी से कमरे में घुस कर दरवाजा बंद कर दिया | कमरे के भीतर खड़ा प्राणी इस स्थिति के लिए तैयार नहीं था | वह चौकं कर मुडा | बंद दरवाजे के सहारे घर के स्वामी को खड़ा देखकर हतप्रभ रह गया | कहीं से भाग नहीं सकता था | उसके कठोर ह्रदय में एकाएक भय समा गया , वह थर-थर काँपने लगा |
साधू राम ने ध्यान से उसकी ओर देखा | वह एक बीस-बरस का, दुबला-पतला सावंला युवक था | उसने चुस्त वस्त्र पहन रखे थे | पैरों की चप्पलें उसने कमर में ठूँस रखी थी | उसके बायें हाथ में पेन्सिल टार्च थी | जेब में चाकू या अन्य कोई हथियार होने की सम्भावना भी थी | कुछ क्षण साधू राम उसकी ओर यूँ ही देखता रहा, फिर मौन भंग करते हुए उसने नम्र स्वर में कहा - " चोरी करने आए थे ? "
शांत हो रही हलचल स्वर का उस पर प्रभाव पड़ा | उसके मन में हो रही हलचल समाप्त हो गई | वह साधू राम की ओर देखने लगा | मुख से मगर कुछ न बोला |
" क्या चाहिए ? " -साधू राम ने पूछा |
....... मगर वह मूक से साधू राम की ओर देखता रहा |
" धन चाहिए ? " -साधू राम की ओर देखता रहा |
" धन चाहिए ? " - साधूराम ने प्रश्न किया |
....प्रत्युतर में उसकी गर्दन झुक गई | मगर उसने मुख से एक भी सहबद उच्चारित न किया | " देखो | मेरे पास धन नहीं | ...... हाँ, यदि और कोई काम की वस्तु दिख रही हो तो बेझिझक उठा लो, मैं कुछ न कहूँगा | "
मगर वह टस-से-मस न हुआ |
साधू राम ने पु:न कहा - यदि कुछ नहीं चाहिए था, तो अन्धेरे में किसे टटोल रहे थे ? " यह सुनकर उसने साधू राम की ओर देखा | साधू राम ने पुन: कहा - " रोशनी को ? ...... मूर्ख हो जो रोशनी पाने के लिए चोरी करते हो | " -साधूराम ने उसकी आँखों में झाँककर देखा, वहाँ भय विद्दमान था | शायद वह मन-ही-मन यह विचार कर भयग्रस्त था की कहीं साधू राम शोर न मचा दे .......|
"देखो, मैं तुम्हें कुछ न कहूँगा , तुम अपनी इच्छा पूरी कर लो | "
दो क्षण कमरे में शांति रही, फिर उसी युवक ने अपना मुख खोला, कहा - " यहाँ कुछ भी नहीं ...... | "
" फिर आए क्यों थे ......? "
" क्या पता था ..... | " वह कुछ निडर हो चला था , मगर उसकी आँखों में शर्म दृष्टिगत हो रही थी |
" अज्ञानी हो........| इतना भी नहीं जानते की अँधेरी कोठरियों में प्रकाश नहीं होता ? "
" अज्ञानी हो तो हूँ | " -वह गम्भीर था, उसके स्वर से ऐसा ही ज्ञात हुआ | मगर साधू राम को लगा की उसके शब्दों में व्यंग्य है ........., व्यंग्य साधू राम के अज्ञान के प्रति की वह इतना भी नहीं जनता की चोर कौन होता है |
" तुम जानकर अज्ञानी बने हो | "
" मैं मूर्ख भी हूँ | "
" तुम जानकार मूर्ख बने हो | जो यह कहे की वह अज्ञानी है, मूर्ख है ......, वह वास्तव में वैसा नहीं होता | - वह हत्यारा होता है अपने विवेक का | "
" मैं बहुत बुरा हूँ ....... मैं अविवेकी हूँ ....., मगर मुझे अब जाने दो | " वह घबरा-सा गया था |
न जाने क्यों साधू राम से आँखें मिलाने में स्वयं को असमर्थ पा रहा था |
" बेफिक्र रहो, मैं तुम्हे रोकूँगा नहीं ...... | " फिर पूछा - " तुम यहाँ अपनी मर्जी से आए थे ? "
" हाँ ...... | " वह अपनी जगह ही खड़ा रहा |
" .......यानी पूर्णत: स्वतन्त्र हो | "
उसने कोई उत्तर नहीं दिया | साधू राम ने पुन: कहा - पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो, किसी का दवाब नहीं तुम पर, फिर भी नहीं सोचते कि चोरी-चाकरी से कुछ नहीं बनने का | .........इससे तुम्हारा जीवन बर्बाद हो जाएगा, बेटा | "
साधूराम कि बात उसने सुनी | सुनकर कुछ सोचा | सोचते-सोचते उसके मुख के भाव कुछ कठोर हो गए | तब कठोर स्वर में ही बोला - " कौन नहीं चोरी करता आजकल ? कौन मेहनत कि कमाई से पेट पाल रहा है आजकल ? ....हाँ, मुझमें और सामाजिक चोरों में इतना ही अन्तर है कि मैं दूसरों के घर घुस कर चोरी करता हूँ और सामाजिक चोर अपने घर आए लोगों की चोरी करते हैं | "
" सभी करते हैं , इसलिए तुम भी करो | -यही तो हमारी नैतिकता -हीनता कि प्रतीक विचारधारा है | जानते हो, इन सामाजिक-चोरों कि संख्या कैसे बढ़ी .....? "
कैसे ..... ? -झट से उसने पूछ लिया |
" एक ने बेईमानी-चोरी-भ्रष्टाचार फैला कर धन कमाया, तो देखने वालों ने सोचा - अच्छा साधन है , बेरा नहीं | रातों-रात धनिक बन सकता है | हमें भी अपनाना चाहिए | कोई पाप नहीं | - और एक दूसरे की देखा-देखी में सबने शुरू कर दिया | ...... इसमें दोष किसका ? "
" समाज का .......|" -उसने उत्तर दिया |
" मगर समाज हमारा समूह ही तो है | हम सब समाज के अंग हैं , हमारा समूह समाज कहलाता है | ......वास्तव में हमारे नैतिक-पक्ष का पूर्णतया हास हो चूका है | चोरों को समाप्त करने की युक्ति सभी सोचते हैं , सोचकर सभी एक दूसरे कि ओर देखते हैं - एक-दूसरे को दोषी ठहराते हैं , स्वयं को कोई भी दोषी नहीं कहता | कोई भी स्वयं नहीं सोचता कि चोरी करना पाप है, स्वयं को धोखा देना है | उपदेश लेने-देने से कुछ नहीं होगा | यह प्रत्येक का कर्तव्य है कि स्वयं सोचे-समझे-करे | "
" एक के सोचने - समझने से क्या होगा ? " -उसने पूछा |
" अरे | एक से मेरा तात्पर्य है , स्वयं सभी अपने लिए | अपने लिए सोचो, दूसरों के दोष निकलते हो ? अपनी कमियों को देखो, उनका सुधार करो ..... तब किसी दूसरे को समझाओ....., उसे भी स्वयं समझने का अवसर दो | सभी सुधर जाएंगे तो सम्पूर्ण समाज सुधर जाएगा | परन्तु यह प्रक्रिया तभी लागू होगी, जब हम अपने विवेक से काम लेंगे | " -
फिर साधू राम ने उससे पूछा - " तुम नक़ल क्यों करते हो ? "
" पर ये हाथ-पैर किसलिए हैं ? "
" हाथ निरंतर कर्म करने के लिए और पैर निरंतर गतिशील रहने के लिए | मगर न कोई काम है, न कोई राह | हाथ-पर-हाथ रखकर बैठने से अच्छा तो यही काम है | "
" मजदूरी क्यों नहीं करते ? "
" बाबा | मजदूरी कर क्या मिलेगा ? - अधिक-अधिक पाँच रुपये | इस महँगाई के समय में पाँच रुपयों से होता क्या है - एक व्यक्ति दो जून भरपेट भोजन नहीं कर पाता | ढाई रूपये किलो आटा है | वह भी नहीं मिलता | मजदूरी करूँगा, सदा मजदूर बना रहूँगा | दुनिया के सभी आनन्दों से कट कर मुझे जीना नहीं सुहाता......., मैं छोटा बनकर नहीं रहना चाहता | "
" धन से इंसान बड़ा नहीं बनता, इज्जत उसे बड़ा बनाती है | तुम्हारी कहीं इज्जत है क्या ? "
- साधू राम ने सीधा उस पर प्रहार किया |
" पैसा तो पैसा होता है न | आनंद तो बड़े लोगों जैसे के सकता हूँ न | " उसने अपने विचार बताए |
"क्षनिक-आनंद की चाह ने तुम्हें अनुचित-पथ की ओर बढ़ने को उकसा दिया है | धीरे-धीरे आगे बढ़ने का, ऊँचा उठने का प्रयत्न करो तो धन के साथ-साथ आदर भी मिलेगा | "
" आगे यूँ कोई नहीं बढ़ने देता | मजदूर सदा मजदूर ही बना रहता है | दस बरस की उम्र से काम करना आरम्भ करता है और जीवन-प्रयन्त वही काम करता रहता है - दिन भर पत्थर तोड़ता है - फावड़ा चला कर नीवें खोदता रहता है | ..... इतने लम्बे जीवन में न उसकी वास्तविक मजदूरी बढ़ पाती है , न ही उसे कोई ऊँचा काम मिल पाता है | " -उसके मन का आक्रोश फूट पडा |
"स्वयं प्रयत्न किया जाए तो ऊँचा उठा जा सकता है बच्चू | क्या दुनियाँ में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जो छोटे से बड़ा बना हो ? .....अरे | जब सृष्टिकृत मनुष्य बच्चे से बड़ा बन सकता है , तो क्या मनुष्यकृत जीवन-स्तर ऊँचा नहीं उठाया जा सकता ? ..... तुम स्वयं में स्वतन्त्र हो | स्वतन्त्र मस्तिष्क तुम्हारा साथी है , असंख्य अच्छे -बुरे विचार उसमें उपजते रहते हैं | अच्छों को अपनाओ | सोचते रहो, प्रयत्न करो | एक-न एक दिन अवश्य तुम्हें सफलता मिलेगी | " -फिर कुछ रूककर बोला - " जो व्यक्ति जीवन स्तर का अर्थ जानता है , वह ऊपर उठने के साधन की भी तलाश करता रहता है | तलाश तुम भी करते हो, परन्तु तुमने अनुचित मार्ग अपना रखा है | बेटा | जो मजदूर जीवन पर्यन्त मजदूरी करता रहता है , जो ऊपर नहीं उठ पाता, उसका एक कारण यह भी तो है की उसने जीवन-स्तर के विषय में विचारा ही नहीं | वह स्वयं को मजदूर पाकर ही प्रसन्न रहता है | जो कुछ उसे मिलता है , उसे भाग्य का दिया समझता है | ..... जहाँ मजदूर जागृत हो जाता है , जहाँ का मजदूर विवेकशील हो जाता है ......., वहां गरीबी नहीं रहती , वास्तविक मजदूरी बढ़ जाती है , जीवन स्तर ऊँचा उठ जाता है | सभी अपने उपलब्ध साधनों की सहायता से अधिक तक संतुष्टि पाने लगते है | हमारे देश के मजदूर अभी सोए पड़े हैं | .... तुम तो जाग उठो और प्रयत्न करो | " -साधूराम ने उसे समझाने का प्रयत्न किया |
" फिर क्या करूँ , बाबा ? केवल अक्ल से काम लेने पर पेट भर खाना भी नसीब नहीं होगा | "
" पर ये हाथ-पैर किसलिए हैं ? "
" हाथ निरंतर कर्म करने के लिए और पैर निरंतर गतिशील रहने के लिए | मगर न कोई काम है , न कोई राह | हाथ-पर हाथ रखकर बैठने से अच्छा तो यही काम है | "
" मजदूरी क्यों नहीं करते ? "
" बाबा | मजदूरी कर क्या मिलेगा ? - अधिक -अधिक पाँच रूपये | इस महँगाई के समय में पाँच रुपयों से होता क्या है - एक व्यक्ति दो जून भरपेट भोजन नहीं कर पाता | ढाई रूपये किलो आटा है | वह भी नहीं मिलता | मजदूरी करूँगा , सदा मजदूर बना रहूँगा | दुनियाँ के सभी आनंदों से कट कर मुझे जीना नहीं सुहाता ......, मैं छोटा बनकर नहीं रहना चाहता | "
" धन से इंसान बड़ा नहीं बनता , इज्जत उसे बड़ा बनती है | तुम्हारी कहीं इज्जत है क्या ? "
- साधू राम ने सीधा उस पर प्रहार किया |
" पैसा तो पैसा होता है न | आनंद तो बड़े लोगों जैसे ले सकता हूँ न | " उसने अपने विचार बताए |
" क्षणिक-आनद की चाह ने तुम्हे अनुचित-पथ की ओर बढ़ने को उकसा दिया है | धीरे-धीरे आगे बढ़ने का , ऊँचा उठने का प्रयत्न करो तो धन के साथ-साथ आदर भी मिलेगा | "
" मगर बाबा, साधनों के बिना क्या हो सकता है ? सभी साधनों पर बड़े लोगों ने अधोकार जमा रखा है | यह कोई नहीं सोचता की बच्चे के बड़े होते ही , .......मजदूर के जागृत होते ही उसे कोई साधन समा दिया जाए ताकि वह उसका प्रयोग अपने कल्याण के लिए कर सके ...... | "
उसका भय समाप्त हो चुका था , आत्मीयता की झलक पाकर |
" मैंने पहले भी कहा की सबसे बड़े साधन हाथ-पैर और मस्तिष्क हैं | उनकी सहायता से तुम ऊँचे उठ सकते हो | " -फिर कुछ रूककर साधूराम ने पूछा - " तुम कितना पढ़े हो ? तुम्हारी बातों से लगता है , पढ़े-लिखे हो ? क्या मेरी धारणा ठीक है क्या ? "
" हाँ दसवीं तक पढ़ा हूँ | "
" छोड़ क्यों दिया | "
" बस यूँ ही | "
" रहते कहाँ हो | "
" दास बस्ती में | "
" माँ - बाप हैं ? "
" हाँ ..... "
" बाप क्या करता है ? "
" फेरी लगाता है | "
" घर में कितने प्राणी हो ? "
" आठ | ..... माँ , बाप , मैं , मुझसे छोटी चार बहनें और सबसे छोटा दो बरस का भाई | "
" कमाता सिर्फ बाप ही है ? "
" नहीं ........, माँ भी मजदूरी करती है और मैं कभी-कभी कुछ दे दिया करता हूँ | "
" चोरी करके ........? "
प्रत्युतर में वह चुप रहा |
" यह कमाई हुई ? " -साधू राम ने पुन: पूछा |
" चोरी तभी करता हूँ , जब कोई दूसरा काम नहीं होता | अक्सर शराब बेचता हूँ ......."
- शांत भाव से उसने कहा |
" गैर-कानूनी | ...... शराब खरीदता कौन है ? "
" झुग्गी -झोपड़ी वाले | "
".........झुग्गी-झोपड़ी वाले ......., और फिर भी कहते हो छोटा आदमी ऊँचा नहीं उठता | ......पागल | सभी बड़े बन सकते हैं , किसी के हाथ-पाँव बंधे नहीं | हम स्वयं ही अंधे बने हैं | दिन भर की कमाई शराब में नष्ट कर देने वाला कभी ऊँचा नहीं उठ सकता | ........अब बोलो ? "
मगर वह कुछ न बोला | तब साधूराम ने प्रश्न किया - " जेल भी गए होगे ? "
" तीन बार ...... | " - जेल का नाम सुनकर वह कुछ डरा |
" मेरा कहा मानो यह काम छोड़ दो......., जीवन-पर्यन्त सुखी होगे | "
प्रत्युतर में उसने कुछ न कहा | साधू राम उसके मुख पर आते-आते भावों को देखता रहा | लगभग एक मिनट पश्चात वह बोला - " मुझे अब जाने दो | "
" हाँ - हाँ, जाओ | "
साधूराम ने दरवाजा खोल दिया | वह तेजी से बहार निकल गया | गली में निकल कर साधू राम ने देखा ....., वह तेजी से आगे बढता जा रहा था | कुछ ही क्षणों में वह उसकी आँखों से ओझल हो गया | साधूराम का मन भारी हो आया | पलटकर कमरे में आकर उसने बिखरे सामान को यथास्थान रखा और बत्ती बुझा कर आँगन में आ गया | शांति को कुछ ज्ञात न था | वह गहन निद्रा में लीन थी | साधू राम भी अपने खाट पर लेट गया |
" आह ..... | " -अंधेरे में उसे ठोकर लगी और लडखडा कर गिर पड़ा | दर्द के कारण उसके मुख से कराह निकल गई | दो क्षण यूँ ही सड़क पर पड़ा रहा, फिर ' ओह | हाय | ' करता उठ खड़ा हुआ | जिस पत्थर से उसे ठोकर लगी थी उसको उठाकर फेंकते हुए उसने एक गंदी गाली निकाली | पत्थर के गिरने की आवाज जोर से हुई - तब रात के ढाई बज रहे थे | वातावरण पूर्णत: शांत था | ऐसे में उसके आगे बढ़ते कदमों की भी आवाज हो रही थी ...... |
वह लडखडाता हुआ आगे बढने लगा | दर्द के कारण वह कुछ भी न सोच न पा रहा था | साधूराम के घर से निकलते समय तो उसके मस्तिस्क में उथल-पुथल मची हुई थी, मगर अब चोट की पीड़ा ने सब विचारों को नीचे दबा लिया था | वह बुदबुदाता हुआ अपने घर की ओर बढे जा रहा था |
उसका घर एक गंदी बस्ती में था | एक छोटी सी झोपड़ी में आठ सदस्यों का परिवार रहता था | गर्मी के दिनों में वे लोग खुले आकाश के नीचे सोते थे और सर्दी के दिनों में झोपड़ी के अन्दर एक दूसरे से चिपट कर | एक-दूसरे के तन की गरमी, एक-दुसरे की गर्म साँसे उनके लिए गरम कपड़ो का काम करती थी |
.......मोहन महीने में अच्छी-ख़ास रकम चोरी-चाकरी करके कमा लेता था | मगर वह अपनी सारी कमाई को शराब-सिनेमा-जुआ और वेश्यागमन में व्यर्थ कर देता था | मस्तिस्क उसमें भी था, मगर वह उसका प्रयोग नहीं करता था वह विचारशील नहीं था.......उसमें विवेक की कमी थी | यदि वह विचारशील होता, तो वह आज चोरी करने के लिए किसी के घर में न घुसता या तीन बार जेल न गया होता...... यदि वह विचारशील होता तो आज मेहनत-मजदूरी करके अपना पेट पाल रहा होता..... आकाश-कुसुम तोड़ने का स्वप्न न लिया करता..... अपने सामर्थ्यानुसार अपने परिवार की सहायता किया करता | ...... यदि वह विवेकशील होता तो इस चोरी-बुरे धंधे की कमाई का प्रयोग भी व्यर्थनीय -कार्यों में न किया करता | इसी से अपने परिवार की सहायता किया करता | इन धंधों में रत रहकर वह अपने परिवार की सहायता करने से सदा हिचकिचाता था | कभी महीने -दो महीने में एक बार उसकी माँ लड़-झगड़ कर उसकी जेब से सौ-पचास रूपये झटक लिया करती थी | इसके पहनावे को देखकर कोई नहीं कह सकता था की यह एक फेरी लगाने वाले का लड़का है | घर में अन्य सभी प्राणियों के कपडे फटे-पुराने थे | माँ एक मात्र फटी धोती से एक बरस बिता चुकी थी, और अभी नई धोती लेने का सामर्थ्य उसमें न था | बहने फटे फ्राक या सलवार-कमीज पहन कर अपने उभरते यौवन को छिपाने का प्रयत्न करती थी | सबसे छोटा भाई तो अक्सर नंगा रहता था |
बस्ती की झुग्गियों को अँधेरे ने जकड रखा था | बाहर की मुख्य सड़क पर विद्दुतीय प्रकाश था, मगर बस्ती में कहीं भी प्रकाश का चिन्ह न था | मोहन को इस अँधेरे में चलने का अभ्यास था | जिस प्रकार वह बेखबर लडखडाता चला आ रहा था, उसी प्रकार अंधेरी गली में लडखडाता हुआ आगे बढने लगा | कुछ ही क्षणोंपरान्त वह अपनी झुग्गी तक आ पहुँचा | झुग्गी का दरवाजा उडका हुआ था | धीमा-सा झटका देने से खुल गया | भीतर पूर्णत: शांति थी | वहां अँधेरा था | मोहन जगह टटोल-टटोल कर रेंगता-सा कुछ आगे सरका | तभी उसका हाथ किसी के शरीर से टकराया | स्पर्श पाकर सोया प्राणी झट से जग गया | तीव्रता से बोला - " कौन है ? " - किसी पुरुष का स्वर था | मोहन पहचान गया, वह उसका बाप था |
" मैं हूँ | " -उसने कहा |
" आ मरा ....... | " -यह कहकर उसका बाप कुछ पीछे सरक गया | मोहन वहीँ लेट गया | कुछ क्षणों पश्चात उसकी आँख लग गई थी |
सुबह छह बजे ही उसे उठ जाना पड़ा | बस्ती भर में जाग हो गई थी | आस-पडौस के शोर के कारण वह सोया न रह सका | आँखें मिचियाते हुए उसने इधर-उधर देखा .... इस समय झुग्गी में उसके सिवाए कोई नहीं था | समझ गया की सभी नित्य कर्म के लिए होंगे | उठ बैठा | मगर उसकी आँखों में अभी नींद थी | दुबारा लेट गया | तभी उसकी माँ और बहन आ गई | माँ की गोद में उसका छोटा भाई था | माँ ने उसे यूँ पड़े देखा, तो शरीर को धीमे से लात मार कर बोली - "ओ मोहन | उठ | "
" क्या है ? " - जरा-सी आँख खोलकर उसने तीखे-स्वर में कहा - " सोने क्यों नहीं देती ? "
" अरे, उठ भी, सुबह हो गई है और तू सोता रहेगा | चल उठ | "
" क्या है ? " -जरा -सी आँख खोलकर उसने तीखे-स्वर में कहा - " सोने क्यों नही देती ? "
" अरे , उठ भी, सुबह हो गई है और तू सोता रहेगा | चल उठ |"
" सोने दे मुझे | "
माँ ने तब अपनी लड़की की और देखा, " पड़ा रहने दे कमीने को | "
मोहन के कानों में बहन के मुख से निकलती गाली पड़ी | आलस्य को दूर फ़ेंक चिल्लाता हुआ उठ खड़ा हुआ और अपनी बहन को एक थप्पड़ मारते हुए बोला - " क्या बोली हरामजादी | .......मुझे कमीना कहती है |"
वह रोने लगी | माँ ने मोहन को गंदी गाली निकाल दी | मोहन उसे कुछ कहने ही जा रहा था की उसका बाप आ गया, वह चुप हो गया |
" क्या हुआ ? " -घर में हो रहा शोर उसने बाहर से ही सुन लिया था |
" ये जंगली हमें मार देगा, सुबह हुई कि लड़ने लगा | हरामी कहीं का | " -उसकी माँ ने चीखते हुए अपने पति से शिकायत की | तब उसके बाप ने कहा - " क्यों बे | तूने क्या उधम मचा रखा है ? .....रातभर घर से बाहर मारा रहता है ......, सुबह क्यों आ जाता है हमें सताने ?"
" इस कुतिया ने मुझे कमीना कहा......| " -मोहन ने चीखते हुए कहा |
" क्या बोला ? .....कुतिया | हरामी | बहन को गाली निकलता है | " -यह कहने के साथ ही उसका बाप उसे मारने के लिए उस पर झपटा | उसकी गर्दन दबाने लगा, साथ ही बोला - " हरामी | तूने हमारी नाक में दम कर रखा है , मरता क्यों नहीं | कुत्ते क्यों आ जाता है यहाँ ? " -साथ ही उसने मोहन को धक्का दिया | मोहन लडखडा कर गिर पड़ा | पर झट से उठ भी खड़ा हुआ और अपने बाप को गंदी गालियाँ निकलते हुए तेजी से घर से निकल गया | कुछ आगे आने पर उसे अपनी तीनों बहने आती दिखी | इन्होने अपने भाई का लाल-पीला चेहरा देखा तो रास्ते से हट कर खड़ी हो गई | उन्हें गाली निकलता हुआ वह आगे बढ़ गया | वे कुछ न बोली | उसकी आदत से भली-भाँति परिचित जो थी |
बस्ती से बाहर पानी का एक नल लगा हुआ था | हाथ-मुँह धोने का निश्चय कर वहाँ रूक गया | नल से पानी भरने वालों की एक लम्बी कतार लगी हुई थी | सभी अपनी बारी के लिए शोर मचा रहे थे | वह नल के समीप जाकर खड़ा हो गया | उसे इस प्रकार आगे आता देखकर एक मुन्ह्फत औरत ने कहा - ऐ | लाइन में लग | "
" मुझे मुँह धोना है | " -मोहन ने रोब से कहा |
" तो वहाँ जा | " -उस औरत ने अपनी तर्जनी से दांयी ओर बने गंदे पानी के जोहड़ की ओर संकेत किया | साथ ही हँस पड़ी | मोहन चिढ गया, क्रोध से बोला - "ज्यादा 'चीं-चीं , मत कर नहीं तो अभी मजा चखा दूँगा | "
" अरे | चुप भी रह | चल, लाइन में लग | " वह भी तैश में आ गई |
" नहीं लगता, कर ले क्या करेगी | " -यह कहकर उसने पानी भर रही एक दूसरी औरत का घड़ा पीछे झटक दिया और कुला करने लगा | उसे ऐसा करते देख पहली औरत ने उसे पीछे से धक्का दे दिया | मोहन लडखडा कर कीचड में जा गिरा | यह देखकर सभी हँसने लगे | कीचड से उठकर उसने अपने कपड़ों की ओर देखा, उन पर जगह-जगह कीचड लग गया था | उसकी दशा पर अब सभी हँस रहे थे | उससे अपना यह अपमान बर्दाश्त न हो सका | आगे बढ़कर उस औरत को उसने कस कर एक तमाचा जड़ दिया | यह देखकर वहाँ शोर मच गया | कुछ लोगों को उग्र हुआ देखकर जेब से एकदम चाकू निकाल कर वह सबके सम्मुख लहराने लगा | सभी सहम कर रह गए \
उसे वापिस घर लौटना पड़ा | बाप ने उसकी दशा देखी तो बोला - "कर आया मुँह काला | .......अब यहाँ क्यों आया है ? निकल | "
क्रोध में तो था ही, तीखे स्वर में बोला - " मुझे ज्यादा बकवास की तो चाकू मार दूँगा...... साले, सभी हरामजादे ने तंग कर रखा है | " -उसने पुन: चाकू निकाल लिया | घर के सभी प्राणी सहम गए | तब बोला- "बाहर निकालो सभी | " -सभी भयभीत थे, झुग्गी से बाहर निकल आए | तब उसने कीचड से लथपथ कपडे उतारे और वहीँ पड़े पानी भरे घड़े से अपना शरीर साफ़ कर दुसरे कपड़ों का जोड़ा पहन लिया | फिर झुग्गी से बाहर निकाल आया | घर के सदस्यों पर दृष्टिपात करते हुए आगे बढ़ा तो उसके बाप ने धरती पर थूकते हुए कहा - " कुत्ता | कोढ़ी बनेगा | "
बस्ती से निकल कर वह सड़क पर आ गया | कुछ आगे चलकर, सड़क के किनारे पर बनी चाय की दूकान में जाकर बैठ गया | दुकान पर इस समय कोई ग्राहक नहीं था | चायवाला उसे देखकर मुस्कुराया, बोला- " और भाई मोहन | तेरा धंधा कैसा चल रहा है ? "
" सब कुछ चौपट | साले एक महीने से हाथ-पर-हाथ धरे बैठा हूँ ......| " अंत में उसने एक भददी गाली निकाल दी |
" तू और खाली | ......अबे , मुझे चलाता है | "
"मेरी कसम....... |" -तभी दुकान पर दो ग्राहक आ गए, उन्हें देखकर उसने कहा - " अच्छा, एक स्पेशल चाय, दो बंद, ....जल्दी | "
चाय पीकर मोहन उठ खड़ा हुआ | सोचने लगा, कहाँ जाए ? ......मंगू का ध्यान आया, मगर मन नहीं माना उसके अड्डे पर जाने को | पिछले एक माह से मंगू ने उसे कोई काम नहीं सौंपा | नित्य उसके पास जा-जा कर वह तंग आ चूका था | मंगू हर बार उसे यही कहा करता था - " अभी कुछ दिनों के लिए सब धंधे बंद हैं | पुलिस साली 'मीसा' के नाम पर अपने सारे सेठों को बंद कर चुकी है | " -हर क्षण मोहन मन-मसोस कर लौट जाता था |
कुछ क्षण यूँ ही उधेड़बुन में पड़ा रहा, फिर उसके पग मंगू के अड्डे की ओर ही बढ़ चले | ......मंगू अभी बिस्तर पर लेटा हुआ था | मोहन ने उसे पुकारा | मंगू ने आँखें खोलकर उसकी ओर देखा |
" राम-राम, उस्ताद | " -मोहन ने हाँक लगाई |
" आ बेटा | .......चला आया आँख खुलते ही | .....बैठ | " -यह कहने के साथ ही मंगू ने भरपूर अंगडाई ली और उठ बैठा | वह उसकी खाट के पायताने बैठ गया | कुछ देर दोनों चुप रहे | फिर मोहन ने मौन भंग करते हुए, मुस्करा कर कहा - " उस्ताद | जंग लगता जा रहा है | "
" रोज तेल मालिश किया कर | " -कहने के साथ ही मंगू हँस पड़ा |
" तेल दे न...... | " -मोहन ने अर्थपूर्ण ढंग से उसकी ओर देखते हुए कहा.... साथ ही मुस्कुरा पडा |
"अरे हाँ ......| " -मंगू बोला जैसे उसे कोई बात स्मरण हो आई हो - " तुम्हें दो-तीन दिनों में एक बड़ा काम सौपूंगा, पूरा कर लिया तो पाँच सौ रूपया मिलेगा | "
" पाँच सौ |" -मोहन प्रसन्नता से उछल पड़ा, "सच......| बताओ काम......|"
"अरे, अभी नहीं ........ कल या परसों | "
"धत तेरे की .......|" - मोहन का उत्साह एकदम ठंडा पड गया - " कल किसने देखा है ? "
" मैंने ..... | " -मंगू हँसा |
" कहाँ ......? "
" आँखों में ......| जो काम देता है ......, वही कल के लिए | हर 'आज' तो तरकीबें लड़ाने, योजनाएँ बनाने में बीत जाता है कल की | ..... रात को 'कल' के सपने लिया करता हूँ ...... | " -मंगू खिलखिला कर हँसने लगा | मोहन भी हँस दिया | ...... कुछ देर और वह उसके पास बैठा, फिर उठ खड़ा हुआ |
राह में सामने से आ रहे एक युगल को देखकर चौंका | पुरुष को पहचान गया, उसकी कटी-बाजू देखकर | .....हाँ वह साधूराम था और उसके साथ शांति थी | दोनों इस समय मंदिर से लौट रहे थे | इस समय सुबह के पौने नौ बज रहे थे | आज मंदिर में एक महात्मा का व्याख्यान था, इसलिए ही वे इतनी देर से घर लौट रहे थे | मोहन उनके पास से आगे होता हुआ आगे बढ़ गया |साधूराम की दृष्टि उस पर पड़ी | एकाएक उसे पहचान न पाया | इतनी अवश्य शंका हुई कि कहीं उस युवक को देखा है | ....कहाँ ? -उत्सुकता वश उसने गर्दन घुमा कर मोहन की ओर देखा | मोहन भी उसी समय मुड़कर साधूराम की ओर देख रहा था | एक क्षण के लिए दोनों की दृष्टि मिली | मोहन एकदम सकपका गया | मुख मोड़कर तेजी से आगे बढने लगा | साधूराम उसी क्षण उसे पहचान गया | तब शांति से उसने कहा -" शांति | जानती हो रात घर में एक चोर आया था ? "
"क्या ..... ? -शांति ने आश्चर्य से उसकी और देखते हुए पूछा |
हाँ , मगर वह चोरी नहीं कर सका | मैं जाग गया था | " - अपनी बात कहते हुए साधूराम मुस्कुरा रहा था |
"क्यों मज़ाक करते हो ? ... घर मैं कोई चोर आए और आप जाग जाएँ, तो भी मुझे ज्ञात न हो ..., ये कैसे हो सकता है ?"
"मैं सच कह रहा हूँ | " साधू राम चलते चलते रुक गया | शांति भी रूककर उसे देखने लगी | साधू राम ने पीछे मुड़कर दूर जाते मोहन की ओर ईशारा करते हुए कहा - "वह देखेगा .......| " -शांति ने भी गर्दन घुमा कर देखा - " वह जो हरी पैंट, काली कमीज पहने लड़का जा रहा है न वही था | .......मैं जाग गया था | "
"फिर ........? " -शांति उत्सुक हो चली थी |
तब राह चलते हुए साधूराम ने मोहन और अपने मध्य हुई सारी बात शन्ति को सुना दी | शांति चुपचाप साधूराम की बात सुनती रही | साधू राम जब चुप हो गया तो वह बोली - " आप भी विचित्र जीवट के हैं | कितनी बातें छिपा जाते हैं | समय बीत जाता है ......फिर कभी जब स्मरण आती हैं तो मुझे बताते हैं | "
-उसकी बात पर साधू राम मुस्कुरा रहा था | .....वे घर की ओर बड़े जा रहे थे |
साधू राम दम्पति को देखने के लिए मोहन ने ठिठक कर, गर्दन घुमाकर पीछे देखा तो साधूराम से उसकी दृष्टि मिल गई | वह एकदम सकपका गया और तेजी से आगे बढ़ने लगा | एकाएक उसके ह्रदय की धड़कन बढ़ गई | पिछली रात के मन में दबे विचार पुन: जागृत हो गए | एक साथ अनेक विचार उसके मस्तिष्क में उमड़ने लगे -
"मैं चोर हूँ | इस बाबा ने मुझे चोरी करते देख लिया था | ..... तब भी पुलिस में नहीं पकड़वाया ...., शोर भी नहीं मचाया | यदि शोर मचा देता तो गली भर के लोग जाग जाते | सभी मुझे निर्दयता से पीटते | ......पुलिस आती......|' -एकाएक मनोविचार उलटे - 'पुलिस कैसे आती ? बाबा शोर मचाता ही कैसे ? -यदि वह शोर मचाने को उद्दत होता तो मैं उसे चाकू न मार देता | सारा काम क्षण भर में ही समाप्त कर जाता ......, किसकी हिम्मत पड़ती तब मेरा सामना करने की ? ...... ' -तभी मन को मन ने रोका - ' .....नहीं-नहीं | उस दयालु -शांतिमयी भावों वाले बाबा को मैं चाकू मारता ही क्यों ? .....उसने शोर मचाना ही नहीं था | .....उसके मुख पर शांति थी ......, उसका स्वभाव कितना अच्छा था | निरंतर निडरभावों से, एक पिता की भांति मुझे समझाता रहा..... ' -क्षण के लिए मन रुका -'अरे | ........उसके मन में ऐसा विचार क्यों कर आया था की मैं उसकी बात मान जाऊँगा....? ...... हाँ उसकी बात मानकर मुझे भूखा मरना है क्या ? -पुन रुका, विचार बदले - ' ......मगर मैं अब क्या करता हूँ , पुलिस का भय बना रहता है |' -एक क्षण में ही बातों में निडरता आ गई - 'अरे | भय रहता है तो क्या हुआ ? एक साथ सौ-दो सौ रूपये भी तो मिल जाते हैं | एक हफ्ता कितने आनंद से व्यतीत कर लेता हूँ | जी भर कर शराब पीता हूँ | ....अड्डे में बैठकर खूब जुअखेलता हूँ , और......और मेरी रातें कितने आनंद से बीतती हैं ......हाँ , उस छन्नों के बदन का रस पीने को मिल जाता है | क्या बुरा है दस ही तो लेती है एक रात के |" -इतना ही सोचकर उसने अपने होटों पर जीभ फेरी - ' हाय | अब तो उसे छुए पंद्रह दिन हो चले हैं ..... |' -उसी क्षण उसकी विचारधारा ने पुन: पलता खाया - ' ......गोली मारो सबको .......बाबा को देखो....., वह भी तो कुछ करता है .....हाँ, कुछ करता ही तो है | भक्त भी है भगवान का | अब मंदिर से ही लौट रहा था...... हाँ, उसके साथ जो बुढिया है उसके हाथ में पूजा की टोकरी ही तो थी | .......मुझसे भिन्न जीवनयापन करने वाले लोग भी तो हैं | .......हाँ, ये बाबा ही | .....इसके पास बंगला नहीं, मोटर नहीं | दो कुर्सीयाँ टूटी-फूटी, चार बर्तन, तीन बक्से | और बक्सों में ..... कुछ कपडे-कुछ कबाड़ | .........और कुछ भी तो नहीं | ....कोई नहीं होगा उसका | बस ये दो होंगे ..... ' -उसे अपना मस्तिष्क घूमता हुआ प्रतीत हुआ | तब एक चाय की दूकान में प्रविष्ट हो गया | दुकानदार को चाय का निर्देश दे कर एक कुर्सी पर बैठ गया | उसका मन गंभीर हो चुका था | वह सोच रहा था - 'क्यों न ऐसा कोई काम करना शुरू करूँ, जिसमे किसी प्रकार का भय न हो | शांति से दो जून खाना मिल जाए | .....मगर मेरे लिए ऐसा करना सरल नहीं | मझदार में आकर नाव डोलने लगे और नाविक तैरना न जानता हो, तो क्या होगा ? ....धंधा करना छोड़ दूं , चोरी करना छोड़ दूँ ......उसका तात्पर्य यह की भूखा मरूँ | और भूखे रहना मेरे बस का नहीं .....| क्षण भी के लिए रुका - हाँ .... जुआ खेलना मेरा शौक, शराब पीना मेरी आदत, औरत से सहवास करना मेरी तीव्र उत्कंठा | ....सभी मेरी आवश्यकताएँ | मजूरी कर कैसे इन्हें पूरा कर पाऊँगा ? ये भला कैसे हो सकता है ? .... ' - क्षण भर में ही विचारों ने पलटा खाया | ' ..... मगर हो क्यों नहीं सकता है ? ...... ' - कितने सारे लोग इस दुनिया में हैं जो इसके बिना जीते हैं | ... हाँ जैसे मेरा बाप | .....इसके बिना मौत तो नहीं आ सकती...., मैं तब भी जीवित रह सकता हूँ |.... - मन में शंका उमड़ी - '....मगर....मगर एकाएक इतना परिवर्तन क्या संभव ? .... ' -तभी एक नया विचार उमड़ा - 'अरे ऐसा क्यों न करूँ ....., कभी मजूरी , कभी धंधा ? .....नहीं - नहीं | ऐसे में तो कुछ नहीं कर पाऊँगा | ....तब.... ?' -तभी चाय आ गई | चुस्कियां भरते चाय पीने लगा | मन अभी सोच भी रहा था - ' कितने दिनों से खाली हूँ | उस्ताद से दो सौ रूपये उधार ले चूका हूँ .... तीन सौ उस दिन एक के घर से चोरी किए थे | एक ही महीने में पाँच सौ रूपये व्यतीत कर चुका हूँ | ...पाँच सौ | इतने तो मजूरी करके ?? |