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"BIKHRE SHUN"
   
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(8) Nirasha (८) निराशा
 
written by
Ashwani Kapoor



 
निराशा
 

यह गली अपने आप में निराली हैं | इसमे बने सभी मकान एक जैसे नहीं | इन मकानों मे रहने वाले प्राणी भी भिन्न भिन्न प्रक्रति व प्रवृति के है | मकान कच्चे भी हैं , पक्के भी | लकड़ी की दीवारों वाले भी हैं , ईटों वाले भी | मिटटी से चिने हुए भी हैं , और सीमेंट से बने भी | पक्की छतों वाले भी हैं , कच्ची छतों वालें भी |

कभी यह गली , गली नहीं थी | ऐसी भीड़ यहाँ नहीं थी |दो चार मकान थे | एकदम खुली जगह थी | साधूराम का घर था , मुंशी का घर था और कुछ दूरी पर कुम्हार का  | बस ... | सौ गज दूर तक कोई मकान नहीं था लेकी जनसंख्या के बढ़ने के साथ - साथ यहाँ और लोग भी आकर बसते गए | कोई किसी की रोक न सका | और इसके फलस्वरूप बरसो पहले जो खुली - हवादार जगह थी , अब एक गली बन गई है | भरी - अँधेरी | ऐसी गली जहाँ कई संसार बसे हैं | सभी के अपने - अपने , छोटे - छोटे | इसीलिए यहाँ अभी तक प्रकाश नहीं आ पाया |

यहीं कुम्हार भी रहता हैं , लौहार भी | धोबी भी रहता हैं , सरकारी मुंशी भी | स्कूल का मास्टर और साधराम जैसा दुकानदार भी | सभी की अपनी - अपनी दुनियां हैं | सभी उसी मे मस्त हैं | धोबी दिन - रात कपड़ो की धुलाई मे मस्त रहता है , लछन  लौहार लोहा फूटने मे | कुम्हार अपनी चाक के पास बैठा मिटटी के बर्तन बनाता रहता है | मुंशी जी को अपने परिवार का विस्तार करने मे , मास्टर जी ट्यूशन रखने मे और साधूराम - शांति को अपने कल्पना लोक मे विचरते रहने मे आनंद आता है | इसीलिए कोई किसी की थाह लेना पसंद नहीं करता | 
और शायद इसिलए लछन यहाँ टिक कर नहीं रह पाया | वह उदास यहाँ आया था , आज भी उदास हुआ यहाँ से जाने को उद्यत है | अपना थोडा सा , जो भी उसका सामान वह बाँध कर चल पड़ा है | कहीं और जाने के लिए उसने इस गली से विदा ले ली गली से निकलकर वह खुले मे आ गया | सामने से साधूराम आ रहा था | लछन उसे देखकर ठिठक कर रुक गया |  साधूराम की ओर देखने  लगा | उसके साथ एक नवयुवक  भी था | वक मोहन था | लछन रुका रहा | साधूराम उसके निकट आया | लछन के कंधे पर लदा सामान देखकर वह चौंका |  - लछन | ये क्या ? "

"बस बाबा , अलविदा | " - साथ ही लछन ने हाथ जोड़ दिए |
"क्या मतलब ? ... मे समझा नहीं |"  - साधूराम ने लछन के उदास चेहरे पर अपनी उत्सुक दृष्टी डाली | " में जा रहा हूँ , बाबा | " लछन का स्वर उदास था |

" कहाँ ?  - साधूराम ने पूछा |
" दूर  ... , कहीं और | "
"भला क्यों ? "
"मेरे पैर मचल रहे हैं | मेरा मन झटपट रहा है |" - लछन ने कहाँ |

" "क्यों ? क्या हुआ ?  - साधूराम को लछन का चले जाना अच्छा नहीं लग रहा था | गली मे अब एक लछन ही तो था , जिसे नित्य सुबह शाम साधूराम 'राम -राम ' किया करता था |
"होना क्या था , बाबा | अपना मन ही नहीं लगा इस गली मे | जैसी घुटन भरी , अँधेरी यह स्वयं है , वैसा ही इसके निवासियों का जीवन है | मै खानाबदोश ही भला | ... बुरा न  मानना , बाबा , यहाँ सभी अपने मे ही मस्त है | कोई किसी की थाह नहीं लेता | अपनी ख़ुशी सभी अपने मे समेटें हैं | अपने दुःख अपने मे छिपाये है  - सभी एक दुसरे के निकट रहते हुए भी कोसों दूर हैं | गली के घुटन भरे वातावरण मे मेरा दम नहीं घुटा लेकिन यहाँ घुट - घुट कर जीती , घुट - घुट कर मरती  जिन्दिगीय   निरंतर मेरा दम घोटती रही | "
" अपने को ही ले लो तुम | अपने ग़म क्या अपने पास ही छिपा कर नहीं रखें ? मैं अक्सर तुम्हारे घर से निकलती सिसकियें को सुनता रहा हूँ |  अम्मा रोटी है | उसे जो दुःख है , मै समझता हूँ | मै भी किसी का बाप था , मेरी पत्नी भी किसी की माँ थी | मै सब समझता हूँ | लेकिन मेरे समूह जैसी एकता यहाँ नहीं | यहाँ एक हँसता है , दूसरा रोता है | कोई ऐसा नहीं जो दुसरो को हँसता देखकर हँसे | रोता देखकर हमदर्द बने | मेहनत करता देखकर हाथ बँटाये | बाबा तुम भी नहीं | तुमने मेरे अब कुछ जान लिया लेकिन अपना सब कुछ मुझसे छिपाये रखा | मैंने देखा , तुमसे कोई पूछता भी नहीं | ..."
" लछन ... | "   - साधूराम की आखें भर आईं थी | और मोहन हतप्रभ कभी साधूराम को देखता , कभी लछन को |  -  जिसका जीवन उनके , सभी के  - मोहन के भी ,  साधूराम के भी  - जीवन से कितना भिन्न था | कहीं लोभ नहीं , कहीं मोह नहीं | कितना सुखी कितना सरल |

" अच्छा , बाबा ... | "  - तभी लछन ने मोहन को देखा | पूछा - " ये कौन है, बाबा ? "
 " यह मोहन है | इसे मै अब अपने पास रखूँगा | "
- साधूराम ने मोहन के कंधे पर अपना हाथ रखकर कहाँ |
" कहाँ से आया है ?  - लछन ने पूछा |
"ऐसी ही एक तंग गली से ... | "

" ज़रूर रखो , ज़रूर  रखो | ... अच्छा मै चलता हूँ ... | राम राम | "

- लछन ने पुन : हाथ जोड़ दिए |

"राम - राम | कभी आए तो मिलना | "
" आया तो , जरुर  | "

- और लछन आगे बढ़ गया | कुछ क्षण तक साधूराम दृष्टी फेर दूर जा रहे लछन को देखता रहा , फिर मोहन को  लिए  गली मे प्रवेश कर गया | तब मोहन ने पूछा - " बाबा | ये कौन था ? " 

मोहन के प्रशन का उत्तर साधूराम ने उसी क्षण नहीं दिया | वह चलता रहा ... एकाएक रुक गया | लछन की झोपडी के पास | अन्य दिनों की भांति आज न भट्टी थी , न ही कोई चिंगारी | थोरी - सी राख पड़ी थी | लछन की स्मृति दिलाने के लिए | शेष वहां कुछ नहीं था | झुग्गी की ओर संकेत करके साधूराम ने कहा  - " एक महीना हुआ यहाँ आकर रहने लगा था | अब चला भी गया | "

" ओह ... | " - मोहन इतना ही कहकर चुप हो गया |

... प्रतीक्षा के क्षण सम्माप्त हुए | गली का दरवाज़ा खुला | साधूराम ने भीतर प्रवेश किया फिर मुड़कर बाहर खड़े मोहन से कहाँ - " आओ | आ जाओ | "

वह झिझका , लेकिन अगले ही क्षण भीतर आ गया | शांति बरामदे मे बैठी थी | उन्हें देखकर उठ खड़ी हुई | बोली - "आ गए  ... | "

" हाँ ... मोहन भी आया गया | "

 

 

- मोहन की ओर देखते हुए साधूराम ने कहा | मोहन अपनी दृष्टी नीचे झुकाए खड़ा था | शांति आगे बैठी | उसके समीप चली आई | उसे उपर से नीचे तक यूँ देखा जैसे परख रही हो | फिर बोली - "हमारे साथ रहोगे ?"

मोहन भला क्या कहता | वह तो आया ही इसीलिए था | उसने दृष्टी उठाकर शांति के मुख की ओर देखा |

"रह लोगे न ... ?"
शांति ने बात दूसरे ढंग से कही |
मोहन ने तब भी कुछ न कहा |
"अच्छा ठीक है |"

- शांति ने उसकी चुप्पी उसकी स्वीकृति समझी | फिर उसकी बाहँ पकड़कर खाट पर बिठा दिया | फिर कहने लगी - " देखो | मेरी ओर देखो , जरा |"
- मोहन ने झिझकते हुए उसकी ओर देखा | तब बोली - " मेरी आखों मे देखो ... इसमे माँ की व्याकुल ममता मंडरा रही है | यही व्याकुलता मिटाने के लिए मैंने तुम्हे इस घर मे रखने का निश्चय  किया है | स्वार्थ मेरा है , लेकिन तुम इससे अपना निर्वाह भी कर सकते हो | मे पुत्र प्रेम की भूखी हूँ और यह भूख तभी मिट पायेगी जब तुम मुझे अपनी माँ की तरह समझोगे | तुम्हारा विगत कैसा रहा , तुम कैसे रहे , क्या कुछ तुमने किया , उसे यदि भूल गए तो तुम्हारे लिए आने वाले  क्षण आनंदमयी होंगे | भूलने से मेरा तात्पर्य यह नहीं की तुम कहने लगे कि वे दिन मेरे थे ही नहीं | ... वे दिन तुम्हारे थे | और उन्होंने तुमसे तुम्हारे सुखद क्षण छीने , इसलिए वैसे दिन तुम फिर अपने पास नहीं फअकने दोगे | अपने क्षणों को व्यर्थ न जाने दोगे | तुमने बहुत क्षण यूँ ही बिखेर दिए उनसे पर यही सीख ले लो कि केवल क्षणों को बिखेरना ही नहीं चाहिए , अपितु उनका इस भांति सदुपयोग करना चहिये ,कि वे उज्जवल भविष्ये    के लिए काम आ सके | ... समझे मेरी बात ?"
कुछ क्षण रूककर शांति पुन :कहने लगी  - "प्यार तभी मिलता है , आदर तभी मिलता है , जब हम स्वयं वैसी परिस्थितियां  उत्पन्न करने का प्रयत्नं करें | तुम यदि किसी को तंग करोगे , तुम यदि किसी को गाली निकालोगे ... कोई भी इस दुव्यवहार  को नहीं सह पाएगा | यह कर - युग है | जैसा करोगे , वैसा भरोगे | प्यार कहते हो तो प्यार दो | आदर चाहते हो तो आदर दो | अपने सुख की चाह मे दुसरो के दुःख के साथी बनो | कोई तुमसे घ्र्रह करता है उसकी घरह को प्यार मे बदलने के लिए तुम्हे अपनी गृहह को त्यागना होगा |"

शांति चुप हो गई | मोहन के चहरे को निहारने लगी | वह शायद उसकी बात पर विचार कर रहा था | तब पूछा - " समझे कुछ ?"

"जी , समझा |" - उसने धीरे से कहाँ |

शांति ने साधूराम के आमुख होकर कहाँ - "जानते हो , अगले मंगल को दिवाली है | शुभ घडी मोहन हमारे घर आया है | हम दिवाली धूम धाम से मनाएंगें | यह ख़ुशी ही तो है हमारी , सबसे बड़ी ख़ुशी | इस बहाने इस घर की उदासी मिट जाएगी |भगवान् ने चाहा तो फिर हमारे आँगन मे उदासी फटकेगी नहीं |" - तभी उसे स्मरण आया  - "और हाँ , सुबह ही लचन को न्यौता दे देना दिवाली का |"

"लछन को ...|"

- साधूराम को आश्चर्य हुआ |

"हाँ , उसे | ... उसे भी अपना साथी बना लेंगे | अपने ही तो मुझे बताया था कि वह अकेला  है | नितांत | उसका अकेलापन हमें ही तो दूर करना चाहिए , जैसा हमारा अकेलापन मोहन दूर करेगा |"  - शांति के शब्दों मे उल्लास था |

साधूराम एकाएक उसकी बात सुनकर गंभीर हो गया | बोला  - " शांति लछन को बुलाना चाहती हो तो समझो दिवाली देर से आई | कुछ दिन पहले आ गई होती | " 

"क्या मतलब ? "  - शांति चौंकी |

"हाँ , लछन चला गया इस गली से | "

- साधूराम का स्वर भर आया |

"कहाँ ? ... शाम को तो यही था | मैं मंदिर गई थी ... " - उसे घोर आश्चर्य की अनुभूति हुई - " लेकिन उदास - सा बैठा था , भट्टी भी नहीं जल रही थी |"  - फिर उसने पूछा - " क्या हुआ पर उसे ? कहाँ गया वह ?"

"कहीं और ..., यहाँ से दूर | यहाँ रह नहीं सका | उसका दम  घुटता था इस गली मे |"
"दम घुटता था | ... लेकिन हमें तो ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ | "

"हमारा नहीं घुटता , इसलिए कि हम यादो मे लिपटे वर्तमान से दूर रहते है | इसलिए कि हम इनके आदि बन चुके है | ... और वह , वह लछन अपना 'आज' हंस कर बिताना चाहता  था , आनंदमयी | ... यहाँ कोई ऐसा उसे नहीं मिला न इसीलिए चला गया |" 

" ओह | ... मैने आनंदमयी ही तो बनाना चाहा था वर्तमान अपना , उसका , अपना , ... , हम सबका | ... लेकिन , खैर ... अभी हम तो है |"  - यह कहकर शांति रसोईघर की ओर बैठ गई | साधूराम उदास था | मोहन कुछ सोच रहा था |

सभी सो चुके थे , लेकिन उसकी आखों से अभी नींद दूर थी | नए वातावरण का अभ्यस्त न होने के कारण वह पल - प्रतिपल बेचैनी से करवटे बदल रहा था | ऐसी दशा मै उसका मस्तिष्क भी विचारमन था | रह - रह कर शांति के शब्द उसे सुनाई पड़ रहे थे , जिन्हें ध्यान मे लाकर वह गंभीर होता जा रहा था :-   

' ... अम्मा कह रही ... , शायद ठीक ही कह रही थी , प्यार मिलता है , प्यार देने पर | दुव्यर्व्हार करें तो ही गाली निकालता है कोई , तो ही ग्र्रह   करता है कोई | यहाँ  प्यार मिलेगा तभी जब तक मैं इनकी भावनाओं की थाह लिए रहूँगा | मुझे इन्हें खुश रखना होगा , तभी ये मुझे अपने पुत्र की भांति समझेंगे |... ' - उसने करवट बदली | उसे अपने सिर भारी होता जा रहा प्रतीत हो रहा था | विचारो को बिखेरने के लिए उसने अपने सिर झटकाया , लेकिन व्यर्थ - ' ... यहाँ मगर चुप्पी कितनी है | नीरसता , नीरवता ... , कितनी मन्द गति से चलता जीवन | यहाँ प्यार मिलेगा , लेकिन यहाँ  उदासी है | कितनी चुप्पी | शोर से कोसों दूर | इतनी शांति भयावह नहीं क्या ? अपनी सब इच्छाएँ दबानी होगी मुझे | कहीं सब कुछ चौपट न हो जाएं मेरा | यहाँ रुखी सूखी है , मगर इस शांति को  कैसे सहन करूँगा | ये बोझिल - क्षण , ये चुप्पी | मेरे जीवन मे जो आज तक नहीं आई , एकाएक इतना चुप | कहीं पागल न हो जाऊं | शायद ही यहाँ टिक सकूँ | हाँ , भला कैसे इनके बुडापे में अपने जीवन को मिला दूँ | मेरा शेर जवान है , उमंगों भरी मेरी हर सांस | में ख़ुशी मे नाचता हूँ | लेकिन ये ... , चुप बैठकर जीवन - दर्शन की बात करेंगे , इनकी उमंग है दबी - दबी उत्साह नहीं आगे के लिए | यहाँ बात मे बात निकलेगी और से पीछे की ओर चले जाएंगे ... , अपनी बात मुझे सुनाएँगे , सुनाते रहेंगे , लेकिन मेरा शोर कौन सुनेगा ? मेरी उमंगें  ठंडी पड़ जाएंगी | लगता है मैंने यहाँ आकर गलती की हैं | बुढ़ापे और जवानी के अंतर की खाई को पाटना आसान  नहीं | इसके लिए या तो मुझे बूढ़ा बनना हो , या इन्हें जवान | में बूढ़ा नहीं बनूँगा किसी भी दशा मे | मुझे घुट घुट के नहीं मरना | मुझमे    सन्यासी बनने की ललक नहीं | मैं अपनी उत्तेजना को संगम के बल पर शांत नहीं करना चाहता | मैं बहुत ऊँचे उठकर देखना चाहता हूँ - कल्पना मे इस सृष्टी का मूल | ... - उसने फिर करवट बदली - ' बाबा कह रहा था ईमानदारी की रोटी खाऊं ,  यह क्या ईमानदारी है कि मैं अपनी सभी उमंगो को नष्ट कर दूँ ... कि मैं अपनी उफनती जवानी मे इस बाबा - बुडिया की शांति का नीर डाल कर इसे एकदम ठंडा कर दूँ | क्या उफान में आनंद नहीं ? मजदूरी करूँ , लेकिन शोर मे रहूँ | बाप फेरी लगता है , मैं भी फेरी लगा लूँ , लेकिन ... लेकिन बाबा की बस्ती के ठन्डे शोर से हटकर  अपने गर्म शोर के ही समीप रहूँ | ... अरे , हाँ मैं क्यों न अपने बाप , अपनी माँ , की ग्रा को प्यार मैं बदलने का प्रयत्नं करू ? आखिर वह मेरे माँ  - बाप हैं ? बाबा - बुढियां से मेरा क्या नाता ? ... हाँ , मुझे इनकी बस्ती से दूर जाना होगा ... नहीं तो एक दिन मैं भी इन्हीं की तरह ...
' इन्हीं की तरह ... , इनकी उमंगें समय पर नहीं उठ पाई , इसीलिए अम्मा को अपनी उमंगें जवान दिखती हैं , उनका समुन्द्र उमड़ता दिखाई देता है | जबकि वे सब निरुत्साहित होकर कब की मर चुकी हैं | अब केवल अतृप्ति है न मिट सकने वाली , और प्रयत्नं कर रहे है उसे  बुझाने का मुझे अपने पास रखकर |  मुझसे अपनी उमंगों की प्यास बुझाना चाहते हैं | ... ताकि ... , ताकि मैं अपनी उफनती उमंगेओं के प्रवाह को इनकी ओर मोड़ दूँ  - अतृप्त हो जाऊं ... ओर मेरा बुढ़ापा भी इन जैसा अतृप्त हो , मुझे भी किसी जवान खून की जरूरत पड़े | ...  नहीं - नहीं , मुझसे इनकी अतृप्ति मिटेगी नहीं | ... बढ़ेगी | इन्हें चाहिए कि और कोई साधन खोजे अपनी बूढी उमंगों को संतुष्ट करने का - भगवान् को बीएस याद करो |...
' ... , हाँ अब मे अब सुबह होते ही ... , सुबह का इंतज़ार क्यों , अभी चल देता हूँ | वापिस | मुझे अपने शोर मे खोकर जीवन कि नई राह को तलाशना है | बेशक मंगू न हो , शराब न हो ... , लेकिन मेरे घर का शोर हो गृहरा  दूर  हो जाए , आनंद दूर हो जाए | फिर क्या चाहिए , और कुछ नहीं |  ...

-और वह उठ खड़ा हुआ झट से | चुपचाप दरवाज़ा खोल कर चला गया | कोई जागा नहीं न साधूराम , न शांति | हवा का एक झोखा आया था , जो वातावरण को क्षण भर के लिए शीतल बना कर पुन : अपनी सृष्टि मे लीन हो गया |
दोनों सुबह उठे | उठते ही चौंक पड़े | मोहन अपने बिस्तर पर नहीं था |
"कहाँ गया ?  - शांति ने पूछा |
"क्या कहूँ ? "  - साधूराम को समझ नहीं आया |
"चला गया ?"
"शायद ... | "
"चला ही गया ... | मगर क्यों ? "
"हमारा भाग्य | "
"भाग्य ... ? "

"हाँ , भाग्य | शायद किसी सहारे का होना नहीं लिखा | दुर्भाग्यशाली हैं हम | कोई मौत नहीं बन सकता हमारा , बेशक हम कितना प्रय्त्त्न करें ... | " - शांति ने आद्र स्वर मे कहा |

" सतीश होता तो क्या होता ... | "
"लेकिन होता तो न , हम इश्वर की अभिशप्त कृतियाँ हैं | " - शांति रोने लगी | घर का वातावरण पुन : बोझिल हो गया था |

Bikhre Kshun - written by Ashwani Kapoor