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"BIKHRE SHUN"
   
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(7) Asha ki Kiran 2 (७) आशा की किरण २
 
written by
Ashwani Kapoor



 
आशा की किरण २
 

शांति आँगन में बिछी खात पर लेटी हुई थी | उसके मुख पर प्रसन्नता थी | उसके होंठ मुस्कुरा रहे थे | उसकी आँखों में उल्लास की दीप्ति थी | मन की बोझिलता, आँगन का सूनापन समाप्त हो गया था |  आज उसे सभी कुछ ........, घर की प्रत्येक वास्तु सुन्दर प्रतीत हो रही थी | उसके मस्तिष्क का विचार-पक्ष सुन्दर सुखद तथ्य बटोरने में मग्न था | आनंदमयी - क्षणों का ताना-बना बुन रही थी वह | रह-रह कर सोच रही थी - ' अहा | आज इस आँगन का सूनापन समाप्त हो जाएगा | आज शाम को मोहन आएगा | मोहन हमारे लिए सतीश बन जाएगा | कितना अच्छा होगा | हमारा जीवन पुन: शांत सरल बन जाएगा | अक्सर मन में उमड़ने वाला विछोह का आवेग अब विलुप्त हो जाएगा......, पुन: कभी आकर हमें नहीं तडपाएगा  | अब मन की उदासी मिट जाएगी | अहा | ..... '
तब मस्तिष्क  ने शंकित-स्वर में कहा - शांति |  मोहन चोर है ......, तुम्हारा सब कुछ लूट ले गया तो ..... ? '
लेकिन यह शंका शांति के मन में उमड़े उत्साह को तनिक भी विचलित नहीं कर सकी | उसने मस्तिस्क को उत्तर देते हुए कहा - ' अरे | क्या लूट ले जाएगा हमारा | हमारे पास है ही क्या ? केवल ममता और स्नेह | लूट ले जाए इन्हें तो अच्छा ही होगा | पुरानी वस्तुओं को तो कुछ समयोपरांत जंग लग ही जाता है | कितने बरसों से ममता और स्नेह का शेषांश , जो अभी हमने सतीश पर लुटाना था, व्यर्थ पड़ा है |  ले जाए..... | यह पास रहेगा, व्यर्थ जाएगा, हम भी तड़पते रहेंगे - उसी भांति जैसे पिछले तेरह बरस तड़पते रहे हैं | ले जाएगा, उसके किसी काम आ जाएगा......, हमारे लिए तो व्यर्थनीय बनता जा रहा है |  ......लुटाने के लिए जो उत्पन्न हुआ, पास रख कर क्या कुछ मिलेगा ? उसे लुटा देंगे ...... उसने चोरी न किया तो भी |   
' इन्होने भी तो यही शंका प्रकट की थी मेरी राय जानने से पूर्व | हाँ, बोले थे - " शांति | चोर है | हमें सहारा देने की बजाए तंग करने लगा तो...... ? जीवन का सुख-चैन लुट जाएगा | "   -तब मैनें यही तो कहा था कि, " अब कौन -सा सुख-चैन है | दिन भर सूनेपन में बैठे अश्रु बहाते रहते हैं न | उसके आने पर इन आँखों को कुछ शांति तो मिलेगी | और हमें तंग करके उसे मिलेगा भी क्या ? अपनी वर्तमान दिनचर्या से उब गया है, तभी तो तुम्हारे पास आया था | वह निश्चित ही हमारे लिए सुखद सिद्ध होगा | हमने कौन सा सदा यहीं बने रहना है | हमारी गति भी तो होगी अब शीघ्र ही | क्यों न उसे सहारा देकर कुछ धर्म कमा लें ?  शायद वह सुधर जाए और उससे हमारा परलोक भी बन जाए | जीवन के अन्तिम क्षण आनंदमयी बन जाएँ |  "  -वे भी मेरी बात सुनकर मान गए थे |  अब मैं स्वयं क्यों शंकित हूँ ? ......
  ' मोहन आएगा | मैं उस पर अपना सम्पूर्ण विश्वास न्यौछावर  कर दूँगी |  उसे अपना सतीश समझ अपनी ममता, अपना स्नेह उस पर लुटा दूँगी | .......मोहन आएगा आँगन में खुशी के फूल खिल उठेंगे | घर भर में बहार छा जाएगी | अहा | हमारे जीवन में अब नई प्रभात का उदय हो रहा है | उसके आने से पूर्व ही मुझे सब कुछ नया-नया, सुन्दर-सुन्दर प्रतीत होने लगा है ......... एकाएक जीवन के सभी मान बदले- बदले प्रतीत होने लगे हैं | '
 शांति आज प्रसन्न थी | बहुत दिनों के पश्चात, यूं कहें तो अधिक उचित होगा कि बहुत बरसों के बाद उसके मुख पर आज ऎसी आभा शोभित हुई थी | मन शांत हो, प्रसन्न हो......, तो सभी कुछ भला प्रतीत होता है | अस्तित्व का बोझ तिनके के समान लगने लगता है | निराशावाद कहीं दूर जाकर अपना नया निवास खोजने का प्रयत्न करता  है | आनद के उन्माद में लीन व्यक्ति की दशा पूर्णत: समुद्र की भाँति हो जाती है,  जो  अपनी खुशी,  अपने उत्साह को प्रकट करने के लिए गर्जता है - उसे अपनी गर्जना सुखद प्रतीत होती है,  उसे अपनी गर्जना में शोर नहीं दिखता ....., जबकि उसकी गर्जना सुनकर हम मनुष्य भयभीत हो जाते हैं......, आश्चर्य प्रकट करते हैं उसकी असीम शक्ति पर | आज शांति के अस्तित्व की दशा भी समुद्र के समान हो गई थी | वह मारे प्रसन्नता के मन-ही-मन हुँकारे भर रही थी | और उसकी दशा पर घर के दरवाजे, घर की खिडकी, सामने की टूटी-फूटी दीवार, गली का आवारा कुत्ता  - जिसका शांति की उदासी से विशेष संभंध है  - सभी....., आश्चर्यचकित थे उसके मुख पर छाई आभा को देखकर |

इस खिडकी, इन दरवाजों- दीवारों और गली के कुत्ते से शांति का बहुत पुराना संभंध है | कुत्ता जब पिल्ला था, तभी से इस गली में रहते शांति ने उसे देखा है | उसे नहीं मालुम की वह जन्मा कहाँ ? हाँ , इतना अवश्य जानती थी वह इस गली में नहीं जन्मा, क्योंकि जब उसे पाही बार शांति ने देखा था,   वह अकेला 'कूँ-कूँ'  करता गली के एक कोने में बैठा था | तब और उसके बाद शांति ने कभी उसकी माँ को नहीं देखा |  अब वह बूढा हो चूका है | उसके मुँह में केवल दो ही दाँत दिखाई देते हैं, अक्सर जब हाँफता है तब किसी को काटता नहीं, अनजान आदमी को गली में देखकर भौंकता हैं, मगर ज्योंही कोई जोर से पैर पटकता है डर कर दस कदम दूर जाकर खड़ा हो जाता है | रात के समय इसे बहुत भौंकने की आदत है |  लेकिन 'धुरे' कहने पर बिलकुल मूक जानवर की भाँति कहीं दुबक कर बैठ जाता है | डरता है की कहीं कोई उसे इस गली से न निकाल दे | लेकी गली के सभी निवासी दयालु हैं, कोई भी उसे भगाना पसंद नहीं करेगा |  शांति भी अक्सर उसे एकाध रोटी खिला देती है | इसी कारण वह बेझिझक घर में घुस आया करता है | अभी तक नित्य सुबह के समय भीतर आकर अपनी कूड़ेदान व इधर-उधर बिखरी वस्तुओं को सूँघने की आदत को नहीं भूल सका | मगर आज शांति को एकाएक इतना प्रसन्न देखकर वह सब कुछ भूलकर उसे ही घूरने लगा | फिर समीप आकर उसके पल्लू को सूँघने लगा |  शांति ने उसकी इस हरकत को देखा तो दुत्कार दिया | वह डरकर दरवाजे के निकट ही दुबक कर बैठ गया | शांति पुन: कुछ सोचने लगी | उसकी दृष्टि सामने के दरवाजे पर थी.....
.......घर के दो कमरों के दरवाजे से, रसोईघर के दरवाजे से , शौचालय व गुसलखाने के दरवाजे से , बाहर गली के दरवाजे से और कमरे की खिडकी से......, घर की सभी दीवारों से तो उसका युवाव्यवस्था से ही साथ-साथ है | साधूराम की ब्याहता के रूप में उसनी पहली बार इसी घर में पग रखा था | इसी घर के कमरे में उसनी अपनी सुहागरात मनाई थी  | इसी घर में सतीश जन्मा था | इसी आँगन में वह घुटनों के बल सरक-सरक कर बड़ा हुआ था | इसी आँगन में रहकर शांति ने जीवन की सभी सुखद अनुभूतियों का स्पर्श पाया था | यहीं उसे जीवन के कटु अनुभवों से परिचय मिला था |  उसके जीवन की हर कहानी यह दीवार, ये दरवाजे, ये खिडकी सुना सकते हैं | काश | उनके भी जुबान होती | घर के इन सभी अंगो से उसका परिचय घनिष्ट होना स्वाभाविक ही तो है | शांति जब कभी उदास हो जाती, इन्ही मूक-बे जान सृष्टि-तत्वों से बातें करने लगती | गली का वातावरण शांत ही रहता, ये भी शांत होते | तब यूँ प्रतीत   होता था की सभी उसकी बात बड़ी तन्मयता से सुनते हैं |  और आज शांति प्रसन्न थी | अपनी प्रसन्नता को इन्ही के सम्मुख प्रकट करने का प्रयत्न कर रही थी | और ये अपनी पूर्व-दशा जैसे ही खड़े थे - जैसे - के - जैसे - शायद शांति के सुख से , उसके दुःख से तटस्थ-मूक |
.......लेकिन शांति इन्ही से कह रही थी - ' पुत्र शब्द ही कितना रसमयी है | बच्चा जन्म लेता है, माँ-बाप उसी की सेवा में रत हो जाते हैं | वह बालक भी अपनी बाल-सुलभ कोमलताओं से अपने माँ- बाप को प्रसन्न किए रहता है | दुःख के दिन पहाड़ जैसे दुर्गम प्रतीत नहीं होते | ....... अब मोहन आएगा, तो पुन: हमें अपना जीवन सरल-सुखद प्रतीत होने लगेगा | वह नित्य इनके  साथ दूकान जाएगा | उसे बहुत प्यार कर विदा किया करूँगी | फिर रात को अपने पास बिठाकर गरम-गरम रोटी .......|'
तभी जैसे उसे कुछ स्मरण हो आया | प्रसन्न हो उठी | कहने लगी - ' अरे हाँ | मैं तो भूल ही गई थी | सप्ताह भर बाद दिवाली है | दिवाली | अब मोहन आएगा | उसके साथ मिलकर दिवाली मनाएंगे | कितने बरस हो गए हँसी-खुशी भरी दिवाली मनाए | खुशियों भरी, उल्लास भरी दिवाली नहीं आई बहुत बरसों से इस घर में | लेकिन अब आएगी | हम हँसेंगे  , हम गाएँगे मंगल-गीत  -  रघुपति राघव रजा राम , पतित तपावन सीता - राम |

' हम नाचेंगे झूम-झूम | राम आएगा न हमारे घर में | हमारे सूने आँगन में बहारें होंगी | घाव भर जाएगा | राम आएगा | राम का नया रूप | सतीश का नया रूप |  हमें उसे सँवारना है | मर्यादा पुरुषोत्तम राम जैसा बनाना है | हमें किसी को फिर से बनाना होगा | '   -शांति खुश हो गई | 
'
 दिवाली की रात सारे घर को दीपकों से सजाऊँगी  | शादी की तरह | खूब मिठाई बनाऊँगी | खूब खाऊँगी | सबको खिलाऊँगी | उस बूढ़े लोहार को भी | हाँ, लच्छन को |  वह भी हमारी तरह अकेला है | हमसे भी अकेला | उसे भी हम अपनी दिवाली में शामिल करेंगे | हम उसे भी अपने घर आने का न्यौता देंगे | उसे भी अपने सुख का साथी बना लेंगे | अपनी खुशियों में उसे हिस्सा देकर उसका मन फिर से हरा - भरा कर देंगे | ....हाँ , वह भी दुखी है | लेकिन कितना कठोर | लोहे का साथी लोहा | अपने दुःख को नहीं बताता | गहरा घाव है इसे मन में भी | हमारे सतीश की तरह इसका  बेटा भी इससे दूर हो गया | हमसे भी बुरा हुआ इसके संग | जात-बिरादरी से निकाल दिया गया |  -लेकिन इसे देखो तो | हर दम खुश रहता  है | अपने काम में निमग्न रहता है | भूलाने की चेष्टा   में कितना कष्ट देता है अपने अंतर्मन को | सभी उफनती भावनाओं को रोके है | अपने आँसुओं को बरसने नहीं देता | बादल पानी के बोझ से लदे हुए हैं  इसकी सृष्टि के | ...... कैसा समुद्र है जो गर्जना नहीं करता | कैसा समुद्र है जिसमें अथाह पानी है, मगर लहरें नहीं | कैसा समुद्र है जिसमें जीवन है, लेकिन स्पंदन नहीं | क्योंकि यह अपना दुःख किसी से बाँटना नहीं चाहता | दुःख से उत्पन्न होने वाली कठोरता की चोट अपने उपर ही मारता रहता है | 
'हाँ, मैं इसे भी बुलाऊँगी | इसे भी अपनी दुनियाँ में ले आऊँगी | जो इसने कभी याद नहीं किया, उसे दबाकर नहीं रखना होगा, उसका बोझ इसे और सहन नहीं होगा | उन्हें हम सबके जीवन में बिखेर देगा | हल्का हो जाएगा और तब हमारी खुशी में अपनी खुशी पाकर इसे भी जीवन-समुद्र सुखद प्रतीत होगा | जैसा औरों को इसे देखकर लगता है | ' - शांति दिन भर ऎसी सुखद कल्पनाएँ करती रही | शाम हुई | उसे मंदिर का ध्यान हो आया | उठकर चल दी |
घर लौटी तो खाना तैयार करने के लिए रसोईघर में चली आई | खाने के साथ उसने कुछ मीठा बनाने की सोची |  उसे बेसन की मिठाई स्मरण हो आई | वह मिठाई बनाने में बहुत निपुण थी | हर कोई उसके हाथ की बनी मिठाई बड़े चाव से खाया करता था |  धीमी आँच पर बेसन भूनते हुए शांति सोचने लगी -  'पहले कितने चाव से बनाया करती थी | सतीश के चले जाने के बाद मन से उत्साह ही मिट गया | कितने बरस बीत गए,  कभी नहीं बनी | इन्ह्नोने तो कई बार कहा था, मगर मेरा मन न माना, हर बार इनकार कर दिया | सौन्दर्य -प्रासधन सुन्दर चेहरे पर ही आकर्षक लगते हैं |.......

'..........लेकिन अब नित्य बनाया करूँगी | नित्य | उसी तरह जैसे सतीश के लिए बनाया थी | वह मन भी करता था, तो भी | उसी तरह...... |'   - तभी शांति को न जाने क्या हुआ रोने लगी  - 'कितना प्यार करता था पगला |  एकदम भूल गया |  .........हरदम 'माँ-माँ' करता चिपटा रहता था | घर आता था हॉस्टल से जब भी, दिन भर पास बैठकर अपने किस्से सुनाया करता था | ........इतना ही प्यार करेगा मोहन ? तू तो न भूल जाएगा न हमें ? निष्ठुर न बन जाना | वो तो पत्थर बन गया | भूल गया वो दिन | अपना गृहस्थ इतना अच्छा लगता है कि हमारी गृहस्थी भूल गया | हमें भी अपनी  गृहस्थी में शामिल कर लेता |  कहाँ गया ? ....... '  - आखिर सतीश उसका अपना पुत्र था | मोहन में उसकी छवि इतनी सरलता से वह नहीं बिठा पा रही थी | कैसे मान लेती एकदम उसे सतीश जैसा | उसके स्थायी-भाव जैसे बार-बार कहते थे - ' मोहन तेरा कहाँ ?  वह सतीश नहीं बन सकता | तू भी उसे सतीश न मान सकेगी, सतीश को जीते -जी विस्मृत कर देना सरल नहीं |'  
'सरल नहीं  | मानती हूँ , सरल नहीं | लेकिन वह पगला हमें विस्मृत किए है, हम क्या करें ? कम क्या करें ? .....'

घी गर्म हो गया था | बेसन भूनने लगी | सतीश पुन: उसके मन में आ बैठा था - ' आ सतीश | ये मिठाई तेरा नाम लेकर ही बना रही हूँ | मोहन में तेरी छवि देखकर | आ भी | ......तुझे ये मिठाई बहुत स्वादिष्ट लगती थी न | माँ भी तो कभी प्रिय भी न |  मिठाई से भी | उसी माँ को तू आज भूल गया | पगले | आ | वास्तव में मुझे तेरी ही प्रतीक्षा है | अन्तिम साँस तक रहेगी | मोहन तो मात्र बहाना है | आ जा | माँ ......., तेरी प्यारी माँ प्ररीक्षारत है | आ ..........|' 
यही सोचते-सोचते शांति का मस्तिष्क स्मृतियों के सागर में तैरता हुआ पीछे की और जाने लगा | हाथ से घी-बेसन का मिश्रण हिलाते हुए शांति सागर-दर्शन करने लगी......, अपनी ममता का, पुत्र के प्यार का रूप देखने लगी | तब यही सोच रही थी कि क्या वैसा ही प्यार मोहन उसे दे पाएगा ? और वास्तव में क्या वह भी मोहन को सतीश का स्थान दे पायेगी ?  
वह सुबह से ही शांति के पास बैठा कुछ सोच रहा था | पुत्र को यूँ गुमसुम बैठे देखकर कहा - " बैठे-बैठे उकता गए होंगे, थोड़ा घूम आओ | "
" मन नहीं कर रहा | "
" क्यों ? "  -शांति ने ध्यान से उसके चेहरे को देखा | वह उदास था | तब पूछा - " क्या बात है सतीश, उदास क्यों हो ? "
"छुट्टियाँ ख़त्म हो गई माँ |"   -धीमे-स्वर में सतीश ने उत्तर दिया |
"अरे हाँ, मैं तो बीमारी में तुम्हारा भूल ही गई थी | " -फिर कुछ रूककर उसने पूछा - " होस्टल कब जा रहे हो ?"
" कैसे जाऊं ? "  -उसने माँ की ओर देखा, जैसे विवश हो | शांति को कारण समझ नहीं आया | बोली    -" क्यों ?  .......क्या बाबूजी ने पैसे नहीं दिए ? "
 " दे चुके हैं......|"
"फिर..... ? "
 " तुम बीमार जो हो .........| "
शांति उसकी बात सुनकर हँसने लगी | फिर बोली - " अरे | मेरे पागल बेटे | बीमार हो तो है , मरने तो नहीं लगी | बुखार ही तो है, एक-दो दिन में उतर जाएगा | तुम व्यर्थ में परेशान हो रहे हो |  जल्दी से जाने की तैयारी करो | यह तुम्हारा अन्तिम बरस है | तुम्हे जमकर मेहनत  करनी होगी | "

" पढ़ाई अपनी जगह है औत तुम अपनी जगह हो, माँ | "   -सतीश ने माँ के प्रति अपनी भावना प्रकट की |
"........और पढ़ाई जीवन के लिए आवश्यक है, माँ नहीं | समझे | "
-अपने शब्द कहने के साथ ही शांति मुस्कुराने लगी | अपने प्रति अपने पुत्र के आंतरिक -भाव जानकार वह प्रसन्न हो उठी थी | 
"नहीं, माँ | माँ के बिना जीवन में अँधेरे के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता |  " - अपनी माँ को ही वह ममत्व-दर्शन करा रहा था |  उसकी भावुकता का स्वर सुनकर शन्ति हँसने लगी और बोली - " अरे | तो क्या सदा तुम मेरी गोद में बैठे रहोगे | इतने बड़े हो गए हो, अब तुम्हे माँ की नहीं एक बहू की आवश्यकता है, और सुन्दर-सुशील बहू के लिए ऊंचे पद की | ऊँचा बनना है, तो मन लगाकर पढ़ाई जरूरी है......., माँ नहीं |   चलो | अब जल्दी से जाकर जाने की तैयारी करो | "  -शांति के अंतिम वाक्य में आदेश था | लेकिन सतीश तब भी बैठा रहा | कुछ बोला भी नहीं |  तब शांति ने पुन: कहा - " अब फिर क्या सोचने लगे ? चलो स्टेशन जाकर टिकेट ले आओ | मैं तुम्हारा सामान ठीक करती हूँ | "  -यह कहकर शांति ने बिस्तर से उठने की प्रतिक्रिया की ही की सतीश ने झट से उठकर उसे लिटाने की चेष्टा करते हुए कहा - "नहीं माँ, तुम अभी बिस्तर से मत उठो | मैं सब कुछ स्वयं कर लूँगा | "
"अरे | तुम जा रहे हो, तब भला मैं कैसे लेटी रह सकती हूँ | मुझे तुम्हारे लिए मिठाई भी तो बनानी है | "
"मिठाई की आवश्यकता नहीं, माँ | तुम आराम करो | "
" आवश्यकता  क्यों नहीं ?   क्या खाली हाथ जाओगे ? .......माँ के हाथ की बनी मिठाई क्या अच्छी नहीं लगती ? "  -शांति ने बनावटीरोष   प्रकट करते हुए कहा |
"बहुत अच्छी लगी है, माँ | 
लेकिन तुम मिठाई से अधिक प्रिय हो | पहले ही बीमार हो, मेहनत करोगी तो और कष्ट होगा | "
" तुम क्या समझो माँ की ममता को | माँ को तो पुत्र की लालना करते सदा आनंद मिलता है,  बेशक वह अंतिम साँसे ले रही हो | "  -स्नेह युक्त स्वर में शांति ने कहा |
" देखो माँ, गलत बात मुँह से न निकालो, वरना मैं..... "
" वरना तुम क्या करोगे.....? "  शांति ने हँस कर पूछा |
" वरना......|  वरना मैं नहीं जाऊँगा | "   -सतीश ने बनावटी क्रोध प्रदर्शित करते हुए कहा | फिर मुस्कुराने लगा | शांति हँसने लगी |  तब सतीश ने पुन: कहा - हाँ माँ , बिस्तर से न उठना | मुझे कोई मिठाई-विठाई की आवशयकता नहीं | "  -यह कहकर सतीश रेलवे-स्टेशन अपनी सीट आरक्षित करवाने चला गया | शांति उसके जाते ही बिस्तर से उठ खडी हुई और रसोईघर में आकर मिठाई बनाने लगी |  
 लगभग एक घंटे पश्चात सतीश लौटा |  माँ को उसने रसोईघर में बैठे देखा, तो बोला - " तुम उठ ही गई न, माँ |  क्या कर रही हो ? "
शांति ने मुस्कुरा कर उसकी ओर देखा और कहा - "देखो | मैंने तुम्हारे लिए मिठाई तैयार की है | " 
" ओ माँ | तुम नहीं मानी......., कभी तो कहा मान लिया करो | "
" हाँ-हाँ, मैं तो अपनी मर्जी करती हूँ न |  अरे, दिल को चैन देना भी तो होता है न |  "  -अपने मनोभावों का उदगार करती हुई शांति रसोईघर से निकल आई | 
सतीश ने उसके दो शब्द दोहराए - " दिल का चैन | "   -अर्थ समझा, मुख से अगाध प्रेमयुक्त स्वर निकला - " माँ .......|  "
माँ की ममता का सच्चा रूप पाकर सतीश उससे लिपट गया | हर्ष से उसके ह्रदय की धड़कन बढ़ गई | ममता का सच्चा रूप देखकर ऐसा ही होना था | 
माँ पुत्र के ह्रदय का कंपन है, पुत्र माँ के हरदी का कंपन है | दोनों एक-दुसरे के मनोभावों का आभास तुरंत पा लेते हैं | पुत्र को दुखी पाकर माँ की आँखों से बरबस ही आंसूँ बह निकलते हैं | पुत्र को प्रसन्न पाकर माँ का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठता है | माँ आखिर माँ है | वह जननी है | पुत्र उसे कितना भी तडपाये, लेकिन वह उससे ghrinaa नहीं कर पाती | पुत्र को कुकुर्म करते देखकर माँ के मन में उन घृणित कर्मों के प्रति जुगुप्सा समाती है........, पुत्र के प्रति तब भी उसके मुख से शुभकामनाएँ निकलती हैं |  हर क्षण उसका ह्रदय ईश्वर से प्रार्थना कर रहा होता है - 'हे भगवान | मेरा लाल फूले-फले माँ की ममता अमर है |
" पागल......| "     -सतीश के बालों में अँगुलियों फेरते हुए शांति कहने लगी - " अरे, मैं माँ हूँ | माँ चाहे औरों के लिए कैसी भी हो, अपनी ममता के प्रति सदैव उसके मन में कोमल भावनाएँ रहती हैं |  माँ अपनी ममता से कभी मुख नहीं मोड़ पाती | .......बेटा, बुखार ने चार ही दिनों में में शरीर से सारी शक्ति निचोड़ ली थी, लेकिन आज ममत्व ने मुझमे शक्ति संचार कर दिया | उसी की सहायता से मैंने मिठाई तैयार की |  ......चलो, अब सामान बाँध लो | "  फिर ममता की पुजारिन शांति ने अपने पुत्र के माथे पर ममत्व भरा चुम्बन अंकित किया | सतीश माँ के  प्रति असीम आदर भाव लिए भीतर जाकर अपना सामन बाँधने लगा .......
विचारशील मस्तिष्क पुन : वर्तमान में लौट आया | अतीत के इस प्रेममयी चित्र ने शांति की आँखों से आँसू  निकाल दिए थे |  और इन आँसुओं के कारण वह गंभीर होकर सोच रही थी | बार-बार वही - मोहन को क्या वह सतीश समझ पायेगी ? अपनी ममता  उस पर लुटा सकेगी ?   - और ...... 
' कैसा निर्मोही है | हमें भिखारी बना दिया  उसकी चाह ने | पुत्र में ऐसा क्या छिपा है कि उसके आगे दुनिया के सारे रिश्ते फीके लगते  हैं |  तुझे क्या हो गया है सतीश.....? तेरे प्यार की महक एकाएक कहाँ लुप्त हो गई.....?'
  बेसन भून चुका था | कढाई  को स्टोव से  उतारकर उसने एक पतीले में चीनी और पानी डालकर, स्टोव  पर चढ़ा  दिया | स्वयं भूने हुए बेसन से उठती सुगन्ध का पान करती सोचने लगी - ' स्नेह कितना मधुर होता है , ममता से उसका अटूट नाता है | दोनों मिलकर जीवन को सुगन्धित बना देते हैं | कुत्रिमता के कारण बनी दीवार ढह  जाती है | गलतफहमी कहीं नहीं रहती | लेकिन एकाएक सब कुछ ढह गया मेरा | मैंने क्या किया था ? मेरा क्यों कर सब कुछ लुट गया | मेरी ममता क्यों व्यर्थनीय बन गई | क्यों मुझे तू भूल गया सतीश ?  क्यों मुझे तूने दूसरो की और देखने पर विवश कर दिया | पहले तो तू ऐसा न था.....'
- और ममता-स्नेह से उठने वाली सुगन्ध का रसपान करने की चाह....., एक और तीस उठाने के लिए उसके मन में, मोहन के विषय में और अधिक विचार करने के लिए वह पीछे लौट आई...... | वह भी सुगन्ध ही थी, मगर कुत्रिम | लेकिन प्यार था वहाँ | तब उन्हें दिली आए दो ही दिन हुए थे | उस दिन की एक मीठी घटना स्मरण आई | 
               सुमिता के शरीर से उठने वाली सुगन्ध का रहस्य जान्ने को उत्सुक थी | शाम के समय जब सुमिता भीतर कमरे में तैयार हो रही थी तो बातों-ही-बातों में उसने सतीश से पूछ लिया - " सतीश | ये सुमिता के बदन से सुगन्ध क्यों उठती है ? "
माँ का अटपटा प्रश्न सुनकर वह चौंका - " क्या माँ ? "    - वह आश्चर्यचकित हो उठा |
" वो सुगन्ध ...... |"

 माँ की बात का अर्थ समझकर सतीश खिलखिला कर हँसने लगा |
       " हँसता क्यों हैं ? "
तभी सुमिता बाहर आई | उत्सुक सी, हँसी का कारण जानने | उसके हाथ में लिपस्टिक   थी | सहज भावों से उसने पूछा - " क्या हुआ ? "
सुमिता की और देखकर हँसते हुए सयिश ने कहा - " माँ पूछ रही है तुम्हारे बदन से सुगन्ध क्यों उठती है ? "
" जी ....... | "        -सुमिता को अपनी सास के अज्ञान पर आश्चर्य हुआ |
   
 " बता दो माँ को ..... |"   - सतीश ने कहा |  तब सुमिता भी हँसने लगी | शांति ने अपनी पुत्रवधू के मुख पर अपनी उत्सुक दृष्टि डाली |
" आईए, माँ जी, आपको  बताऊं | "
सुमिता उसे कमरे में ले गई | ड्रेससिंग टेबुल से एक शीशी उठाकर उसने शांति को थमा दी और बोली - " यह स्प्रे – सेंट है, माँ जी | इसे मैं अपने बदन पर छिड़क लिया करती हूँ | "
शांति को अपने अज्ञान पर हँसी आई | वह मुस्कुराती हुई कमरे से बाहर निकल आई | सुमिता भी आ गई | " समझ गई, माँ ? "  - सतीश ने मुस्कुराते हुए कहा |
" हाँ,  समझ गई | "
फिर कुछ मिठाई-विठाई खिला रही हो ? "
" हाँ-हाँ |  क्यों नहीं | अभी बनाती हूँ | "
यह कहकर शांति रसोईघर की ओर बढ़ गई |  तभी उसने सुमिता को सतीश से पूछते सुना - " कैसी मिठाई ? "
" अरे | अभी उस दिन तो खाई थी खन्ना में | भूल गई क्या उसका स्वाद ......? "
शांति रसोईघर घर में आकर मिठाई बनाने लगी | बेसन भूनते हुए उसमें से उठती सुगंध का आनंद लेती हुई सोचने लगी - बहू के बदन से कितनी सुगंध उठती है | मेरा तो जी मिटला गया था | न जाने कैसे-कैसे फैशन चल निकले हैं | भला उस सुगंध लगाने का क्या लाभ ?  
क्या शरीर की सुन्दरता बहुत नहीं मर्दों को रिझाने के लिए ? मर्द भी इतने मूर्ख कि कुत्रिमता के चक्कर में आ जाते हैं......  | हमने तो कभी ऐसा फैशन न किया था | सादा जीवन था, लेकिन प्यार तो असीम मिलता था ..... '
बेसन कुछ अधिक भुन गया | मिठाई का रंग मटियाला हो गया | मगर स्वाद तब भी नहीं बिगड़ा था | चाय के साथ शांति ने मिठाई परोस दी | सुमिता ने मिठाई का रंग देखा तो नाक चढ़ा ली | लेकिन सतीश बड़े चाव के साथ खाने लगा | सुमिता सिर्फ चाय पी रही थी |
शांति ने देखा तो कहा - " क्या बात है, बेटी, मिठाई लो न | "   - साथ ही उसने मिठाई की प्लेट सुमिता के सम्मुख कर दी | सुमिता ने उसके हाथ से प्लेट ले ली और पुन: उसे मेज पर रखते हुए कहा - " माँ  जी |  मेरा मन नहीं कर रहा | "
        " क्यों क्या मिठाई अच्छी नहीं लगती ? "
" अच्छी तो लगती है, मान जी |  मगर इसका ......"  - क्षण भर  के लिए वह रूकी | अपने शब्दों को उसने मन में तोला | तुरंत बात पलट गई - " मगर अब मेरा मन नहीं रहा | "
तब सतीश ने कहा - " अरे | खाकर तो देखो, बहुत स्वादिष्ट बनी है | "
" वो तो इसका रूप ही बता रहा है |  "  - व्यंगपूर्ण-मुद्रा में मुस्कुराते हुए सुमिता ने कहा | सतीश उसका अर्थ झट से समझ गया |  बोला-  " क्या कह रही हो, सुमिता | जानती हो,  माँ ने कितनी प्यार से बनाई है | "
" आप ही खाईए, मेरा मन नहीं कर रहा | "
शांति ने अपनी पुत्रवधू के रुख को देखा, समझा, तो बोली  - " कोई बात नहीं , बहू , मैं तुम्हारे लिए कुछ नमकीन ले आती हूँ | "  - यह कहकर शांति रसोईघर की ओर बढ़ गई | उसका ध्यान भीतर बैठे अपने पुत्र-वधू पर केन्द्रित था | उसने सुना, सतीश सुमिता से कह रहा था - " तुम बहुत मूर्ख हो , सुमिता, जानती हो, माँ हमसे कितना स्नेह करती है ......| "

" मैंने कब इनकार किया है ......? "

सुमिता का स्वर सुनकर शांति सोचने लगी कि वह उच्च घराने की होते हुए भी..... सभ्य -सुशिक्षित होते हुए भी समझदार नहीं है | उसने परिस्थितियों के साथ सामंजस्य स्थापित करना नहीं सीखा | ...... शांति और अधिक न सोच सकी | उसका ध्यान पुन: उनकी बातों पर लग गया था | सतीश कह रहा था - " जानती हो, बचपन से ही मैं माँ के हाथ की मिठाई कितने चाव से खाता हूँ ..... |  "
" खाते होगे ..... | "
- सुमिता का स्वर उसके अहम को उजागर कर रहा था | 
" माँ बहुत स्वादिष्ट मिठाई बनाती है | "
- सतीश के स्वर में जोर था |
" अच्छा....... मगर मैं सफाई पसंद हूँ | "
- सुमिता को जैसे मटियाले-रंग से चिढ थी, नाक-भौं सिकोड़ते हुए उसने कहा |
" इसमें क्या कमी है ? " 
" कुरूप | "
उसके इस शब्द को सुन दो क्षण सतीश चुप रहा, फिर कुछ सोचकर प्यार से बोला - " सुमिता | तुमने माँ का दिल दुखाया है | ..... देखो |  कभी-कभी किसी का दिल रखने के लिए अपनी भावनाओं को दबाना भी पड जाता  है | माँ ने कितने स्नेह से मिठाई बनाई है और तुम उनके ह्रदय को चोट पहुँचा कर उचित नहीं कर रही हो | प्लीज |  मिठाई खा लो, बेशक एक टुकडा ही सही ...... | "  
- और जब शांति नमकीन लेकर आई, तो सुमिता ने कहा - " माँ जी | आप यूं ही नमकीन ले आई | छोडिये इसे, मैं मिठाई ही खाऊँगी | जब ये कह रहे हैं तो अवश्य ही अच्छी होगी | "
- यह कहकर सुमिता ने मिठाई का टुकडा उठाकर अपने मुँह में डाल लिया |
शांति पुत्रवधू में आए इस परिवर्तन का कारण समझती थी मुस्कुराने लगी | उसने सतीश की ओर देखा | वह निरंतर मिठाई खाने में मग्न था | शांति का मन अपने पुत्र के लिए और स्नेहमयी हो उठा |
' हाँ  रे, तूने तो सुमिता से कहा था, किसी का दिल रखने के लिए कभी-कभी अपनी भावनाओं को दबाना पड़ता है |  अब स्वयं ही भूला है | मुझसे तो तेरी कोई बात नहीं हुई थी | तब मुझसे क्यों रूठ गया रे ? अब माँ की भावनाओं का तुझसे कोई सम्बन्ध नहीं | ...... कहीं मोहन भी ऐसे ही आकर एकाएक लौट गया, तो क्या होगा ? तब क्या जीवित रह पायेंगे हम ? भावनाओं का रिश्ता बंध गया,  फिर तोड़ गया तो क्या करेंगे ? तब सतीश याद आएगा, मोहन भी | .......
' हे भगवान ! तुझे यदि थोड़ा-सा भी हमसे प्यार है तो ऐसा न करना | मोहन दे रहा है, हँस कर लूँगी | उससे प्यार करूँगी | पर...... पर सतीश की भाँति हमसे छीन न लेना | .... नहीं तो, नहीं तो हम अपने दुर्भाग्य से मुँह छिपाकर आत्महत्या कर लेंगे ...... ' - शांति के मस्तिष्क में उथल-पुथल मची थी | सुबह जो उत्साह था, अब उसके साथ बहुत-सी शंकाएँ थी ......, और उनके कारण भय था |
मिठाई बन गई तो स्टोव पर दाल की पतीली  रखकर आँगन में आकर बैठ गई | साधूराम के आने का समय हो गया था |  उसकी आँखों में प्रतीक्षा के लक्षण उभर आए थे |

Bikhre Kshun - written by Ashwani Kapoor