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"BIKHRE SHUN"
   
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(9) Nai Tarang (९) नई तरंग
 
written by
Ashwani Kapoor



 
नई तरंग
 

मोहन आया , क्षणभर के लिए आशाएँ - आकंशाए उमड़ी, लेकिन व्यर्थ | वह जितनी तेज़ी से आया था, उतनी तेज़ी से लौट भी गया उनके जीवन से | न उसके आने का पूर्वानुमान लगा सके थे वह, न उसके यूँ एकाएक चले जाने ही उपेक्षा करते थे | लेकिन होनी को ... , अक्सर उन्हें स्वयं को ढाढस बंधानें के लिए यही कहना पड़ता हैं ...   कौन टाल सकता था ? एक मंत्र हैं जो उनमे आशा - संचार करता है | और यही आशा उन्हें प्रतीक्षा कराती है | इस प्रतीक्षा मे वे सब कुछ भूल जाते हैं | सब - कुछ | मंगल , अमंगल जाना पड़ता हैं | दिवाली आक्र्श्रहीन ...

विरह - वेदना - व्याकुलता से वे तडपते हैं | घर - भर उदास जाना पड़ता हैं | शांति इसी उदासी में घिरी सोचती हैं - ' राम लौटा था, सबने खुशियाँ मनाई थी | सबने दीप जलाए थे | राम लौट आता हैं, सूनापन समाप्त हो जाता है, लोग तभी दिवाली मनाते हैं | हमारा राम नहीं लौटा आता हैं ,  घर में  अभी भी सूनापन व्याप्त हैं | जब लौट आएगा तभी दिवाली मनाएंगे | उस मर्यादा पुरुषोत्तम राम से हमारा क्या सम्बन्ध | हमारी आखों का तारा तो सतीश है | सतीश ही हमारा राम है | वह नहीं लौटा, फिर कैसी दिवाली ? अमावस्या की रात अभी नहीं जगमगा सकती सितारों से ...

साधू राम अपने आँसूं नहीं रोक पाता | विकल मन कहता हैं, "राम चौदह बरस पश्चात  अयोध्य लौटे थे , क्या सतीश भी लौट आएगा ? राम लौटे थे तो दशरत मर चुका था, क्या मैं भी उसके आने से पूर्व ही मर जाउँगी ? सतीश का मुख देखना क्या मेरे भाग्य में नहीं ?" - उसकी आखें बहने लगी थी , अविरल | लेकिन शांति न जान सकी | घर में अँधेरा था | निराशावाद की परछाई प्रतेक वस्तु को अपने घेरे में लिए थी |

उधर गली का वह कुत्ता उन्हें बार - बार तंग कर रहा था | रह - रह कर वह गली के जर्जर द्वार को अपने पंजो के बल उछ्ल कर खोल देता और भीतर आकर 'कूं - कूं' करता इधर - उधर मुहँ मारने लगता | हर बार साधूराम उसे दुतकारता और उसे बाहर निकल कर द्वार बंद कर देता | लेकिन वह बहुत ढीठ था | इस बार आया तो दोनों में से किसी ने भी उसे नहीं दुतकारा | वह अपने विचारों मे ही मग्न थे |
अब शायद वह कुत्ता भी इनकी उदासी को देखकर गंभीर हो उठा है | चुप होकर एक कोनें में दुपक गया हैं | इन्हीं की ओर देखने लगा है |
उसकी दृष्टी  में कुछ उत्सुकता है , कुछ साहनुभूति, कुछ दुःख और कुछ भय भी | भय इसलिए कि कही वे उसके विचारों को भंग न कर दें |

लेकिन इन्हें इस बात की चिंता नहीं हैं कि कोई आकर उनकी चुप्पी मे विघ्न डालेगा | आशा जो नहीं रही | इसलिए भय कहीं नहीं इनके मन में, इनकी आखों में | इनकी आखों में केवल निराशा है, दुःख है , व्याकुलता है और कुछ खोजने की उत्कंठा भी | वे कुछ ऐसा खोजना चाहते है, जिससे की अपनी चर्या को सरल बना सके | लेकिन साधूराम की अपेक्षा शांति इस तथ्य पर विचार करने की अधिक चेष्टा कर रही है | सोच रही है की बेकार में फूसां लिया है उन्होंने स्वयं को इन झंझटों में | जो विलग हो चुका है, उसे स्मरण करने का क्या लाभ | इनकी बाजू भी भी तो ... | आगे नहीं सोचती | विशवास कुछ डिगने सा लगता है | मान नहीं पाती कि वे दो ही हैं, दो ही थे | सतीश बार - बार उभरता है उसके मानस - पटल पर |
... एक प्रयत्न और ... |
... संस्कार उभरते हैं
 समझाने का प्रयत्न करते हैं | उत्साहित करते हैं | कहते हैं - ' शांति | राम तो तुम्हारा उद्यारक है | तुम सब राम के बनाए हो | राम के अंश हो तुम | वह तुमसे कहाँ रूठा है ? वह तो तुम्हारी नस नस मे समाया  है  सतीश के वियोग मे अपने जीवन - प्रदाता को भूल जाना उचित है क्या ? उसे भूलकर क्यों क्रत्धन बनते हो ? रक्त  का छोटा - सा अंश खोने का इन ग़म, शांति, अच्छा नहीं | रक्त निकलता है, फिर बन जाता हैं | संबध घनिष्ट रक्त से नहीं प्यार से होते हैं, मोह से होते हैं,
 ममता से होते हैं | शांति माँ ही ममता को राम पर न्योछावर कर दो | राम माँ का आराधक है | राम सबका था | वह अमर है | सतीश के वियोग मे अपनी ममता को व्यर्थ न होने दो | उसे राम पर लुटा दो | उठो, शांति, उठो, सब कुछ भूल जाओ, दीप जलाओ , राम के गूढ़  गाओ | राम है, तुम हो, तुम्हारा पति है | बस | ... उठो अब , उठो ... |'

कुछ देर तक मन मे अन्तद्रर्द चलता रहा | अन्त मे विजय संस्कारों ने पाई | शांति ने  अपनी आँखों मे छाई नमी को साफ़ किया और साधूराम के आमुख हो बोली - " कब तक यूँ- चलता रहेगा ? ऐसो के पीछे अपना जीवन  व्यर्थ करने की क्या आवश्यकता जो हमें चाहते नहीं | जो सदा से अपना है उसी पर यदि अपनी खुशियाँ न्योछावर कर दे  तो बेहतर होगा | राम के आगमन का दिन है | राम हमारे है | हमें आज ख़ुशी मनानी चाहिए | अन्य लोगो की भांति दीप जलाकर अमावस्या की रात की कालिमा को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए  शोक करने से, उदास रहने से कुछ नहीं मिलने का ... | जाईए | बाज़ार जाकर दापक खरीद लाईए |"

साधूराम , जो न जाने कहाँ - किस विचारलोक मे खोया हुआ था , शांति की बात सुनकर चोंका , बोला - "क्या कहा ? दीपक खरीद लाऊं ? ... दीपक |" - मन उसका कहीं और बह रहा था , वहीं बहते बहते बोला - " शांति | दीपक कभी ख़रीदे नहीं जाते , दीपक बनाये जाते हैं ..., और अब मुझमे इतनी शाक्ति नहीं कि बना सकूँ |"

 उसकी बात सुनकर शांति ने उसे घूर कर देखा | उसके शब्दों का मर्म समझने के लिए उसकी आखों मे झाँका | लेकिन वहां शून्य विराजमान था , एक गहरी उदासी व्याप्त थी | एकाएकइ  कुछ न समझ पाई | शब्द अर्थहीन लगे | लेकिन उन्हें जब अपने अंतर क्षेत्र मे घुमाया तो अर्थ समझ गई | तब बोली - " ... मैं   तो राम कि पूजा के लिए मिटटी के दिए लाने को कह रही हूँ |... मैंने कुलदीपक कि बात तो नहीं की |"

" मिटटी के दीये | ... ओह | शांति | तुम मिटटी के दीयों को कह रही थी और मने कुलदीपक समझ लिया || ... कैसी विचित्र बात है | ... नहीं , विचित्र क्या | सब कुछ साधारण  ही है , केवल समझने मे अंतर है | यहाँ किसी का कुछ मूल्य नहीं , सभी मिटटी समान |"

" आज ख़ुशी का दिन है | आपको ऐसी बाते मुख से नहीं निकालनी चाहिए | जाईए , बाज़ार जाकर दीपक खरीद लाईए | देखिए न , सब घरों मे दीप मालाएं सजनी शुरू हो गई है | तनिक अर्रोस - परोस से आ रही मंगल - गीतों की धवनि तो सुनिये | सभी ख़ुशी  से झूमते हुए मंगल - गीत गा रहे है | उनका स्वर कितना मधुर है | क्या हमें यूँ ही अँधेरे मे बैठे रहना होगा ... , गूंगों की भांति चुप , लूलो की भांति एक ही जगह बैठे रहना होगा ? हम अन्धे नहीं जो कुछ देख न सके | हमारा अस्तित्व तो पुरः  है |" - शांति के शब्दों मे भक्ति का विशवास था|   

कुछ सुनकर , कुछ देखकर साधूराम ने कहा - " सब कुछ देख - सुनकर बोल सकते है हम , लेकिन तब भी हम अधूरे है | खुशी का दिन है ..., होगा | लोग खुशियाँ मना रहे है - किस बात की ख़ुशी ? कैसी ख़ुशी ? मुझे तो कुछ महसूस नहीं होता | लोग पागल है , धन व्यर्थ कर रहे है | ... शांति | ये मंगल गीतों का स्वर नहीं , ये अपनी बुराइयों को छुपाने का प्रयत्न है | अपने स्वार्थ के वशीभूत होकर धन व्यर्थ किया जा रहा है |" - उसका स्वर करुढ़ हो उठा - " तुम कहती तो हमारा अस्तित्व पुरः है ... , शांति तुम पुरः हो सकती हो , लेकिन मै अधूरा हूँ | एक हाथ बचपन मे कटा था , एक तेरह बरस पहले कट गया ... , मे तो लूला हूँ शांति |"

" प्राढ़नाथ ... |"
- उसकी  करूरा का यह रूप शांति ने पहले  कभी नहीं देखा था |
" ... शांति | क्या करूँ मैं ? मुझे सब शोर प्रतीत हो रहा है ... व्यर्थ का शोर | " - उसके शब्दों मे निरीहता झलक रही थी | 
तब शांति ने कहा - "आप यूँ ही ऐसा सोच रहे है मन की घुंडी को इन गीतों की ओर मोड़िये ...  , तनिक ध्यान से गीतों को सुनिये ...  भक्तजन  कह रहे है - रघुपति राघव राजा राम , पतित तपावन  सीता राम | - सभी राम की वंदना कर रहे है | उसकी वारि  कितनी मीठी है | हम भी तो प्रतिदिन मंदिर जाते है | सुर से स्वर मिलकर इशवर की वंदना करते है | उठिए , आज हम दोनों मिलकर घर मे ही भजन करे | शायद घर मे भी मंदिर की भांति खुशहाली व्याप्त हो जाए | शायद राम आ जाए ... |"

शांति की बात पर साधूराम नि: श्वास लेकर बोला - शांति | तुम भाग्यशालिनी हो | राम तुम्हारा है , वह तुम्हारे लिए आएगा | तुम ख़ुशी मनाओ | मुझे तो पता है मेरे राम ने अब नहीं आना | वह आएगा भी तो मेरी म्रत्यु के बाद | तब मे क्यों दीप जलाऊ ? मेरे लिए तो आज का दिन भी अन्य साधारण दिनों की भांति है , और हर साधारण दिनों की भांति है , और हर साधारण दिन मेरे लिए अतीत की यादे और दुःख भरा सन्देश लिए आता है - हाँ सन्देश ही तो लाता है | छोटा सा सन्देश - साधूराम | दिनभर यादो की नौका मे विचर , तड़प | न अब तेरा वर्तमान है , न भविष्य | केवल अतीत अब तेरा साथी है | वही अब कल्पनाए किया करेगा , वही तुझे हसाएगा , वही तुझे रुलाएगा | - और शांति , अभी रोना ही है , सतीश नहीं आएगा ,  मुझे रोना ही होगा और रोते - रोते ... |"

साधूराम के निराशा भरे शब्द शांति और न सुन सकी | बीच मे ही बोल पड़ी , तनिक तीखे स्वर मे - "कह तो आप ऐसे रहे है जैसे परिस्तिथियों को बदलना आपके वश मे ही नहीं | आज चलो बेटे के पास , मे भी चलती हूँ | देखते ही गले न लिपट जाए तो मेरा नाम शांति नहीं | लेकिन आप मेरी कहाँ सुनेंगे ? आप तो आत्म - सेवी है | जो आत्मा कहती है , वही करते है | दिल रोता है , उसकी परवाह नहीं | यह आत्मसम्मान की ललक झूठी  है | इसने तो अपना हर्दय तोड़ दिया है , ... टूटता जा रहा है | अपने को देखिए रो रहे है | मेरी आखों मे झांक कर देखिए , विरह का तूफ़ान उमरता नज़र आएगा | इस तूफ़ान को और कोई नहीं , केवल सतीश की शांत कर सकता है |  मोहन लाए थे , दर कर भाग गया , सभी भाग जाएंगे ... , सिर्फ सतीश ही है | कहा मानिए , चलिए बम्बई |... "

साधूराम फफक - फफक  कर रो पड़ा | रोते - रोते ही बोला - "बम्बई मे कहा ढूंढेंगे उसे ? दिल्ली मे था , पता मालूम था उसका | बम्बई कोई छोटी तो नहीं जो आवाज़ लगाए उसे और वह सामने खड़ा हो जाए |" 
- यह सुनकर , शांति को लगा की क्षर भर पूर्व संजोया सपना टूटने लगा है ... आकाश मे टिमटिमाता प्रतेक तारा एक - एक करके टूटता जा रहा है | उसे अपना सिर घूमता महसूस हुआ | उसकी आँखों से आंसूं बह निकले |
 तब साधूराम ने कुछ न कहा | उसने अपने आंसू पोछ लिए | उठकर नल के पास आकर उसने अपनी नाक को साफ़ किया , फिर आकर अपनी जगह बैठ गया |

" हाँ , क्या होता ... | जो होना था , हो गया | ... जो होना है , होगा |... फिर इस उदासी का क्या कारण ? ये आंसू क्यों कर बहाते है हम ? कुछ नहीं , मुर्खता हमारी , व्यर्थ की भावनाएं और इन भावनाओं के घेरे मे घिरे हम ...  | छोडिये , भूल जाईए ... जाकर दीपक लाईए | " - उसने अपने आंसूं पोछ लिये और साधूराम से बोली | मन डोल रहा था उसका , लेकिन नियंत्रित किए रही |

"चल | निकल ... |"
- और वह झट से 'कूँ - कूँ ' करता भाग गया | गली का आवारा कुत्ता शायद उदासी मे ही सबके काम आता है | तब गली को वह अपना हमदर्द जान पड़ता है ... , दुःख समझने वाला , समझकर साहनुभूति जताने वाला | लेकिन ख़ुशी मे उसकी उपिस्ताथी सबको खलती है | जबकि वह बेचारा उन्हें खुश देखकर खुश हो जाता हैं | आँगन मे पड़ी प्रतेक वस्तु को सूंघने लगता है और जो कुछ उसे अच्छा लगता है , उस पर मुंह मारने लगता है | उसकी यह हरकत सहनीय किसे ? तब उसे सब दुतकार देते है | बेचारा |

 दरवाज़ा बंद करके वह पुन : अपने स्थान पर आकर बैठ गई | वह इस समय सामने के घर मे जल रहे दीपकों को निहारती हुई साधूराम के विचारों मे आए परिवर्तन के विषय मे सोच रही थी | कहाँ साधूराम टाल मटोल कर रहा था और कहाँ एकाएक दीपक लेने बाज़ार लेने चला गया | ऐसा अक्सर हो जाता है | मानव का मस्तिष्क भी कुछ इस प्रकार का गढ़ा है ईशवर ने | विभिन्न प्रकार के विचार इसमे उत्पन्न होते रहते है | विविध प्रकार के फूल कभी कैसी महक छोड़ते है , कभी कैसी | एक क्षर पूर्व किसी आलोचना कर रहे होते है , तो दुसरे क्षर उसी के प्रति प्रेम प्यार ह्रदय मे उमड़ने लगता है | अपने अंतर मे आया परिवर्तन तो हमें महसूस नहीं होता , परन्तु किसी दूसरे के आचार - व्यवहार और मनोभावों मे आए परिवर्तन का आभास हमें क्षर भर मे हो जाता है | एकाएक आए परिवर्तन को देखकर , सुनकर , समझकर हमें आश्चर्य होता है , परन्तु जब कारण ज्ञात होता है तो सामान्य हो जाते है |
लगभग आधा घंटा शांति को यूँ ही बैठे रहना पड़ा | चुपचाप बैठी सोचती रही | साधूराम लौट आया | उसके हाथ मे एक बंडल था | उसमे दीपक थे | उसके मुख पर उल्लास की दीप्ति थी | शायद उसने अपने ह्रदय को समझा दिया था , अन्यथा इस समय भी उसके मुख पर ह्र्दय के दर्द को प्रतिबिम्बित करती उदासी की एक गहरी पर्त जमी होती | जब जानते है , होनी को टालना असंभव है तो रंज करने का कोई लाभ नहीं | जीवन के अनमोल क्षरो को रंज के प्यालो मे डूबो देना उचित नहीं |
जमी होती | जब जानते है , होनी को टालना असंभव है तो रंज करने का कोई लाभ नहीं | जीवन के अनमोल क्षरो को रंज के प्यालो मे डूबो देना उचित नहीं |
जीवन तो उल्लास का प्रायवाची है | उसी के अनुकूल ही बिताना चाहिए इसे | मिलन - विछोह - नाराज़गी तो इस जीवन के अंग है | मिलन होता है तो मन प्रमुदित हो उठता है | विछोह के क्षरो मे आखों से नीर नहीं थमता | नाराज़गी एक दूसरे की कमियों को ढूंढने मे बिता देते है | कितने स्वार्थी है हम जो सदा अपने ही सुख आनंद की कल्पना करते है
शांति उसे देखकर उठ खड़ी हुई | बोली  - "ले आए दीपक |"
प्रत्युत्तर मे साधूराम मुस्कुरा दिया | शांति ने आगे बढकर उससे दीये ले लिए | रसोईघर मे आकर उसने सभी दीये पानी मे धोये , फिर उन्हें एक थाली मे रखकर उनमे तेल डाला | तत्पष्चात रुई की बत्तियां बनाई और प्रतेक दीये मे एक - एक बत्ती डाल दी |

दीपक जलाकर दिवार पर सजा दिये | दोनों खुश थे | शांति की स्थिति छोटे बच्चो के समान हुई पड़ी थी | अपने हाथ जोड़कर उसने जगमगाते दीपकों की पंक्क्ति की ओर देखा और फिर हरश मिश्रित वाणी मे बोली - " कितने सुन्दर लग रहे है ये दीपक | "
 " हाँ ... , बरसो से छाई इस दिवार की उदासी भी आज टूट गई है | "
" पूजा करें ?"  - शांति ने पूछा |
" हाँ , चलो | "
दोनों कमरे मे आ गए | कमरे के दरवाजे की दांयी ओर की दिवार मे एक आला था | उस आले मे शंकर , लक्ष्मी ओर श्री रामचन्द्र के चित्र लगे हुए थे | फर्श पर आसन बिछाकर साधूराम बैठ गया | उसके साथ शांति भी बैठ गई | शांति ने ज्योति प्रज्ज्वलित की ओर तीनो तस्वीरों पर केसर का तिलक लगा कर शीश नवाया | तब दोनों ने आरती शुरू की -
 ओं जय जगदीश हरे
स्वामी जय जगदीश हरे ,
भक्तजनों के संकट
क्षण मे दूर करें |
ओं जय जगदीश हरे ,
स्वामी जय जगदीश हरे |...

आरती समाप्त होने पर शांति ने हाथ जोड़कर शीश नवा दिया | लेकिन साधुराम अविरल बैठा रहा | उसका एकमात्र हाथ उसकी छाती से टिका रहा और उसके नेत्र मुंदे हुए थे | दो क्षण शांत रहने के उपरान्त उसने 'उस' अज्ञात , अविनाशी , परमात्मा को संबोधित कर कहना आरम्भ किया -
"हे प्रभु | हम तुम्हारी वंदना करते है | तुम्हारे नाम मे अपार शक्ति है | तुम्हारा ध्यानकर हमें असीम आनंद की प्राप्ति होती है | आज मंगल दिवस है | हम तुम्हारा स्वागत करते है | राम जी | आकर हमें दर्शन दो | हम पर क्रपा करे | हम तुम्हारे बनाये हाड - मॉस के पुतले है | तुम हमें शक्ति दो , ताकि हम अपने संघर्षमयी जीवन को बोझिल न समझे , सत्य की आराधना करते हुए मन - वचन - कर्म से निर्मल हो जाए | हे महाप्रभु | तुमने सृष्टी के प्रादुभार्व के साथ जिस विधान की रचना की है उसकी महिमा अपार है | वह विधान हम सबका पालक है , वह सर्वव्यापी है , सर्वशक्तिमान है | उसका यथेचित पालन करने हेतू हममे शक्ति प्रवाहित करो |"  - कुछ क्षण के लिए साधुराम का स्वर रुका | शांति उसकी प्रतेक बात बड़े ध्यान से सुन रही थी | साधुराम ने फिर कहना आरम्भ कर दिया - " हे राम जी | कभी कभी हमारे जीवन - पथ पर बिछुरे दिन , बिचुरा प्यार आंसुओं की बाढ़ ले आता है | राह अवरुद्ध हो जाने पर हमें मजबूर होकर रुक जाना पड़ता है | प्रभु तुम्हारे विधान के पालन की चाह होते हुए भी हम तब स्वयं को विवश महसूस करते है , और कुछ न कर व्यर्थ मे आँसू बहाते है , अपने अतीत मे खो जाते है |
निराशवाद हमारा साथी बन जाता है | मानसिक कुठारघाते वज्रपात बनकर हमारे सिर पर गिरती है | ... हे प्रभु | जनता हूँ , वह तुम ही हो , जो हमें धैर्य का पाठ पढाते हो | आकाश मे बिजली चमकती है , नेत्र उठाकर देखते है तो क्षण भर के लिए तुम्हारा शांत चेहरा उस कडकती बिजली के भीतर चमकता दिख जाता है |... हे प्रभु | तू ही तू है ... तू ही है ...|" -
साधू राम का स्वर थम गया | उसके चक्षु अभी भी मुंदे पड़े थे | उसका हाथ अभी भी ह्रदये से लगा हुआ था | शांति चुपचाप उसे देख रही थी | उसने देखा , साधू राम के मुख पर शनै: शनै : आलोक छाता जा रहा है | तभी चौंकी , देखा , उसकी आँखों से आसुंओं की अविरल धारा बहने लगी है | साधू राम की इस सच्ची - भक्ति का रूप शांति ने पहले भी कई बार देख रखा था ...  पहली बार शायद पैतालीस बरस पूर्व देखा था | तब शांति अविवाहित थी | उसकी उम्र  बीस बरस थी | घर का सारा काम अकेली करती थी | माँ उसकी गृहस्थी से तटस्थ  रह भजन - कीर्तन मे लीन रहती थी | एक दिन माँ उसे मन्दिर ले गई | वही उसने साधुराम को देखा | शांति को वही दिन याद हो आया ... |

  ... मन्दिर मे  आरती हो रही थी | शांति ने देखा भक्त मंडली के मध्य एक दुबला , गौर वरी य , सुन्दर युवक बैठा , ढोलक - बाजे की तालपर मधुर स्वर मे भजन गा रहा है , अन्य भक्तजन उसका साथ दे रहे है | भक्तजन आँखे मुंदे इशवर की भक्ति मे लीन थे | सभी के क्षव्यद्वारखुले हुए थे और साधू राम के मधुर स्वर की रस उनसे प्रवेश कर शरीर के भीतर पहुच रहा था | सबके शरीर मे आनंद की हिलोंरे उठ रही थी | शांति की भी यही दशा थी |
 साधू राम का स्वर थमा ही कि शांति के नेत्रों के पट खुल गए | उसने देखा , चौंकी - साधू राम कि बायीं बाजू नहीं थी | साध राम खड़ा होकर इस्वर की वंदना करने लगा था | उसकी आँखे मुंद गई थी और उसका एकमात्र हाथ उसके ह्रदय पर टिका था | साधू राम भक्ति - रस की तरंग मे झूम रहा था | शांति पहले भी कई बार उसने साधू राम के दर्शन किए थे | साधुराम के मुख पर छाए आलोक की आभा से प्रभावित होकर शांति उसके सम्मुख नतमस्तक हो गई |

... मीठा स्वर थम गया | साधुराम ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया | भक्तजन प्रसाद लेकर बाहर की ओर जा रहे थे | शांति ने देखा , साधुराम अपने स्थान पर आखें मुंदे बैठा है ... उसके मुख पर आलोक की तीव्र आभा है | उसका एकमात्र हाथ उसके ह्रदय स्थल से टिका है | तभी चौंकी , देखा , उसके नेत्रों से अश्रुओं की एक एक अविरल धारा बहने लगी है | अश्रु देखकर शांति भावविभोर हो उठी | उसने साधुराम की ओर हाथ जोड़कर शीश नवा दिया |

उसकी माँ ने उसे ऐसा करते देखा , तो अर्थपुर  ढंग से मुस्कुरा दी | शांति को क्या ज्ञात था कि यही दिव्य पुरुष उसका पति बनेगा | मन्दिर से बाहर आकर उसने अपनी माँ सरस्वती से पूछा  - " माँ | वह कौन थे ?

"कौन ... ? "
- माँ ने अनभिज्ञ बने पूछा |
"वही जो भजन गा रहे थे ...?"
- शांति के मन मे साधुराम के प्रति अगाध आदर समां गया था | तभी तो उसके लिए वह आदरयुक्त शब्द प्रयोग कर रही थी |

"वह | - वह साधूराम है | यही रहता है , अपने मामा के घर | दुकान करता है |" अपनी बात कहते हुए सरस्वती मंद - मंद मुस्कुरा रही थी | 

"भक्ति का सच्चा - सातिविक रूप है उनके मुख पर , दिव्य - पुरुष की भांति तेज़ ... | " शांति ने अपनी माँ को अपने मनोउदगार कह डाले | भक्ति - ज्ञान के विश्य मे शांति बहुत कुछ जानती थी | उसे स्कूली - शिक्षा नहीं मिली थी , परन्तु घर मे आए दिन कीर्तन होते थे , माँ के गुरु - महात्मा , साधू - संत लोग आते थे , उनके वचन सुनकर शांति के मस्तिस्क का विकास हो चुका था | ओर मस्तिष्क का विकास ही तो सबसे बड़ा ज्ञान है, सरस्वती यही समझती थी , इसलिए उसने शांति को कभी स्कूल भेजने का प्रयत्न नहीं किया था | अक्षर - ज्ञान शांति को घर मे रहकर ही मिल गया था |  

"पर बेचारा अपंग है ... बहुत  पहले इसकी बाजू कट गई थी |  - माँ ने अर्थपुर ढंग मे कहा |
"इससे माँ उनके चेहरे पर छाये आलोक मे तो कमी नहीं आ सकती | ... हाँ , जीविकोपार्जन करने मे कठिनाई अवश्य आ सकती है ... "

शांति की शंका सुनकर सरस्वती ने कहा - " ऐसी बात भी नहीं है | वह अकेला पनसारी की दुकान करता है | इतना  कमा लेता है कि गुजर हो जाए | मामा नहीं रहा |घर मे सिर्फ दो ही है  - एक वह आप और दूसरी उसकी मामी ... |" 
"और माँ -बाप ....?"
"माँ इसे जन्म देते ही मर गई थी ..."
"और बाप ... ?"
"वह ... , वह भी मर गया समझो |"
"क्या मतलब ... ?"
"कुछ नहीं ... |" - सरस्वती बात छिपा गई - "वह भी मर गया |"कुछ छिपा रही है | लेकिन और अधिक न पूछ सकी | तब सरस्वती ने पुन : कहाँ -
"इसे मामा - मामी ने ही पाला है |"
"ओह ..."
दोनों माँ - बेटी मे इस विश्य मे और बात न हुई | चुपचाप घर लौट आई | शांति घर का काम करने लगी और सरस्वती पूजा के कमरे मे जाकर रामायण का पाठ करने लगी | जब से शांति के पिता का देहावसान हुआ था , उसकी यही दिनचर्या बन गई थी - केवल भक्ति |
कुछ ही दिनों पश्चात साधूराम को शांति के जीवनसाथी के रूप मे चुन लिया गया | शांति को यह समाचार जब उसकी सखी ने बताया तो उसकी आखों से बह निकले ... | शादी के बहुत  बाद शांति को साधूराम से इस बात कि जानकारी मिली थी कि साधूराम के पिता ने उसके जन्म से पहले ही दूसरी शादी कर ली थी और अपना धर्म भी परिवर्तित कर लिया था | शादी के समय वह लाहौर कि तरफ चला गया था | 
... शांति ने सब कुछ याद किया | फिर साधूराम कि ओर दृष्टी फिराकर देखा , वह अभी भी पूर्वावस्था मे बैठा था | वह चुपचाप , एकटक , स्नेह पूरा दृष्टी से उसके आलोकमयी मुख को निकारने लगी | लगभग पाँच मिनट पश्चात साधूराम कि समाधि भंग हुई |

चक्षुद्वार खुलते ही उसे अपने सम्मुख कि मूर्ति और बायीं और अपनी अर्धागिनी बैठी दिखाई दी | शांति एकटक उसे बैठी देख रही थी |
उसे अपनी ओर यूँ देखता पाकर , साधूराम ने  मुस्कुराते हुए कहा -
"क्या देख रही हो ?"
... शांति ने सब कुछ याद किया | फिर साधूराम कि ओर दृष्टी फिराकर देखा , वह अभी भी पूर्वावस्था मे बैठा था | वह चुपचाप , एकटक , स्नेह पूरा दृष्टी से उसके आलोकमयी मुख को निकारने लगी | लगभग पाँच मिनट पश्चात साधूराम कि समाधि भंग हुई |

चक्षुद्वार खुलते ही उसे अपने सम्मुख कि मूर्ति और बायीं और अपनी अर्धागिनी बैठी दिखाई दी | शांति एकटक उसे बैठी देख रही थी |
उसे अपनी ओर यूँ देखता पाकर , साधूराम ने  मुस्कुराते हुए कहा -
"क्या देख रही हो ?"
"संगीत का स्वर मैंने सुना - समझा | वह कह रहा था - जीवन कोमल - रसों से परिपुढ़ है | कठोरता अपनाना इसका नियम नहीं | जो कठोरता अपनाता है उसे कष्ट उठाने पड़ते है | वह निराशावादी बन जाता है | सत्य का उपासक है | ऐ मानव | जीवन - पथ की ओर मोड़कर ले जाना तुम्हारा कर्तव्य है |"
"मै मंत्रमुग्ध होकर सुनता रहा | कुछ क्षण और बीते | उस महान संगीतकार के हाथ थम गए | वह मेरी ओर देखने लगा | मैंने नतमस्तक होकर पूछा - ' आप कौन है ?"
"मेरा प्रश्न सुनकर वह मुस्कुराया , बोला - बोला - 'मै उल्लास हूँ |
"उल्लास , मन मे दोहरा कर मैंने पूछा - 'आपका निवास - स्थान ...?' "
"शांति | उसके मुख पर छाये आलोक की आभा इतनी तीव्र थी कि मैं उसके मुख की ओर देख ही न पा रहा था | उसने मुस्कुराकर मेरे प्रश्न का उत्तर दिया - ' आत्मा ... ' "
"मै आत्मा का अर्थ जानना चाहता था , इसलिए मैंने प्रश्न किया - 'आत्मा क्या है ? हे महात्मा |"
"मेरे इस प्रश्न पर उस महत्मा ने अपनी वीणा के तारो को फिर से बजाना आरम्भ कर दिया | तारे झंक्रत हो मुझसे कुछ कहने लगी | मैंने उनकी भाशा समझने का प्रयत्न किया | वीणा की कोमल - स्वर लहरी कह रही थी
- ' इस प्रकाश - पुंज से निकलने वाली प्रतेक किरण एक आत्मा है | और ये प्रकाश - पुंज है परमात्मा | इसी प्रकाश से तुम्हारा अस्तित्व दृष्टी गोचर हो रहा है | यदि इसका प्रकाश अपनी दिशा बदल ले , तो तुम्हारे अस्तित्व का महत्व समाप्त हो जाएगा | यह सुनहरी किरणे सदा तुम्हे तुम्हारा कर्तव्य स्मरण कराती है | यह सदा तुम्हे तुम्हारा कर्तव्य - पथ दिखाती है | तुम सांसरिक - प्राणी अज्ञानवश या जानकर इसे अभौतिक समझ बैठते हो और इसके संदेशो इसके निर्देशों पर विचार नहीं करते , उनका पालन नहीं करते | ऐ मनुष्य | यह तुम्हारे ज्ञान का सागर है | इस ज्ञान - सागर मे गोता लगाकर रत्न निकालने  का प्रयत्न करो |  यदि स्वयं को शक्तिहीन समझते हो तो अपने भीतर लग्नभाव जाग्रत करो , अपने भीतर  सैयम जाग्रत करो | इसके बताये मार्ग पर चलोगे तो शांति मिलेगी , अन्यथा मनोविकार जन्म लेंगे | आत्मा तुम्हारा पुण्य क्षेत्र है | जितना इसमे लीन रहने का प्रयत्न करोगे , उतना ही सुख पाओगे | 
आत्मबल - आत्मज्ञान - आत्मविश्वास तुम्हारे प्रतेक कर्म को सरल बना देगा |'
-वीणा पर थिरकती उस महात्मा की जादुई अंगुलियाँ थम गई |" 
"मैंने पूछा - ' आत्मक्षेत्र मे कैसे विचर सकता हूँ ?' "
"मोह - ममता का त्याग करके |' "
'मगर कैसे ? मे एक सांसारिक प्राणी हूँ |"
 " इस पर महात्मा ने कोमल - स्व्युक्त उत्तर दिया - ' यही तुम्हारा अज्ञान है , साधुराम | यही तुम आत्मा को भूल जाते हो | आत्मा कहती है - सबसे प्रेम करो , सब पर विशवास करो , क्योंकि सभी के भीतर प्रकाशित किरणे एक ही पुंज से उत्पन्न हुई है | यदि प्रेम के बदले प्रेम नहीं मिलता , यदि विश्वास के फलस्वरूप विस्वासघात मिलता है , तो शोक मत करो | क्योंकि घ्रेरण , वैर विस्वासघात  इश्वरकृत नहीं , मनुष्यकृत है | 
तुम मुझे अपना साथी बना लो | मेरा संगीत तुम्हे निराशावाद से दूर रखेगा | तुम सदा अपने कर्म मे  लीन रहोगे | आत्मा कहती है , सदा ज्ञान फैलाओ | तुम को आत्मकिरण की  ज्योति के बल पर उजाले मे परिणित  कर दो | परन्तु कभी भी ऐसा पग न उठाना कि उजाला अंधकारमय हो जाए | जानते हो , ऐसा कब होता है ? - जब तुम कर्म के प्रति अपने अन्तर मे लग्न न जाग्रत करो , जब प्रयत्न - भाव का तुम त्याग कर दो | ... अरे |
 " इस पर महात्मा ने कोमल - स्व्युक्त उत्तर दिया - ' यही तुम्हारा अज्ञान है , साधुराम | यही तुम आत्मा को भूल जाते हो | आत्मा कहती है - सबसे प्रेम करो , सब पर विशवास करो , क्योंकि सभी के भीतर प्रकाशित किरणे एक ही पुंज से उत्पन्न हुई है | यदि प्रेम के बदले प्रेम नहीं मिलता , यदि विश्वास के फलस्वरूप विस्वासघात मिलता है , तो शोक मत करो | क्योंकि घ्रेरण , वैर विस्वासघात  इश्वरकृत नहीं , मनुष्यकृत है | 
तुम मुझे अपना साथी बना लो | मेरा संगीत तुम्हे निराशावाद से दूर रखेगा | तुम सदा अपने कर्म मे  लीन रहोगे | आत्मा कहती है , सदा ज्ञान फैलाओ | तुम को आत्मकिरण की  ज्योति के बल पर उजाले मे परिणित  कर दो | परन्तु कभी भी ऐसा पग न उठाना कि उजाला अंधकारमय हो जाए | जानते हो , ऐसा कब होता है ? - जब तुम कर्म के प्रति अपने अन्तर मे लग्न न जाग्रत करो , जब प्रयत्न - भाव का तुम त्याग कर दो | ... अरे |
 " इस पर महात्मा ने कोमल - स्व्युक्त उत्तर दिया - ' यही तुम्हारा अज्ञान है , साधुराम | यही तुम आत्मा को भूल जाते हो | आत्मा कहती है - सबसे प्रेम करो , सब पर विशवास करो , क्योंकि सभी के भीतर प्रकाशित किरणे एक ही पुंज से उत्पन्न हुई है | यदि प्रेम के बदले प्रेम नहीं मिलता , यदि विश्वास के फलस्वरूप विस्वासघात मिलता है , तो शोक मत करो | क्योंकि घ्रेरण , वैर विस्वासघात  इश्वरकृत नहीं , मनुष्यकृत है | 
तुम मुझे अपना साथी बना लो | मेरा संगीत तुम्हे निराशावाद से दूर रखेगा | तुम सदा अपने कर्म मे  लीन रहोगे | आत्मा कहती है , सदा ज्ञान फैलाओ | तुम को आत्मकिरण की  ज्योति के बल पर उजाले मे परिणित  कर दो | परन्तु कभी भी ऐसा पग न उठाना कि उजाला अंधकारमय हो जाए | जानते हो , ऐसा कब होता है ? - जब तुम कर्म के प्रति अपने अन्तर मे लग्न न जाग्रत करो , जब प्रयत्न - भाव का तुम त्याग कर दो | ... अरे |

 " इस पर महात्मा ने कोमल - स्व्युक्त उत्तर दिया - ' यही तुम्हारा अज्ञान है , साधुराम | यही तुम आत्मा को भूल जाते हो | आत्मा कहती है - सबसे प्रेम करो , सब पर विशवास करो , क्योंकि सभी के भीतर प्रकाशित किरणे एक ही पुंज से उत्पन्न हुई है | यदि प्रेम के बदले प्रेम नहीं मिलता , यदि विश्वास के फलस्वरूप विस्वासघात मिलता है , तो शोक मत करो | क्योंकि घ्रेरण , वैर विस्वासघात  इश्वरकृत नहीं , मनुष्यकृत है | 
तुम मुझे अपना साथी बना लो | मेरा संगीत तुम्हे निराशावाद से दूर रखेगा | तुम सदा अपने कर्म मे  लीन रहोगे | आत्मा कहती है , सदा ज्ञान फैलाओ | तुम को आत्मकिरण की  ज्योति के बल पर उजाले मे परिणित  कर दो | परन्तु कभी भी ऐसा पग न उठाना कि उजाला अंधकारमय हो जाए | जानते हो , ऐसा कब होता है ? - जब तुम कर्म के प्रति अपने अन्तर मे लग्न न जाग्रत करो , जब प्रयत्न - भाव का तुम त्याग कर दो | ... अरे |
कहते हो फल बुरा मिला | भगवान् को दोष देते हो | फल कभी बुरा नहीं मिलेगा यदि तुम्हारा कर्म सुन्दर हो | हाँ प्रतीक्षा करनी पड़ती है | साधुराम | रंज को मेरे संगीत के प्याले मे घोलकर पी जाओ , ज़हर भी अमृत लगेगा | तुम पुत्र - वियोग मे क्यों तडपते हो ? उस चिड़ियाँ को देखो ... "
कहते हो फल बुरा मिला | भगवान् को दोष देते हो | फल कभी बुरा नहीं मिलेगा यदि तुम्हारा कर्म सुन्दर हो | हाँ प्रतीक्षा करनी पड़ती है | साधुराम | रंज को मेरे संगीत के प्याले मे घोलकर पी जाओ , ज़हर भी अमृत लगेगा | तुम पुत्र - वियोग मे क्यों तडपते हो ? उस चिड़ियाँ को देखो ... "
"महात्मा ने पीठ की ओर संकेत किया | मैंने पीछे मुड़कर देखा ही था कि द्रश्य परिवर्तित हो गया | मे एक हरे - भरे उद्यान मे एक वृक्ष कि डाल पर बैठा था | वही  एक चिड़ियाँ ने अपना घोसला बना रखा था | मैंने देखा चिड़िया अपने घोसले मे बैठी अपने बच्चे को खाना खिला रही है | फिर देखा , वह बच्चे को उडाना सिखाने लगी | ...  कुछ ही देर मे वह उड़ना सीख गया | पूणत:  दक्ष होकर वह आकश मे स्व्चन्द्तापुर्व्क विचारने के लिए न जाने कहाँ चला गया |  चिड़िया ने उड़ते देखा , प्रसन्नता से 'ची - ची ' करने लगी | तभी उसकी आखों से दो आंसूं टपक पड़े | शायद इसलिए कि अब वह अपने बच्चे की पालना नहीं कर सकेगी | उसकी ममता का प्रयोग तभी होगा जब और एक नन्हा -  सा उसका बच्चा होगा | कुछ क्षण वह घोंसले मे चुप बैठी कुछ सोचती रही | फिर  'ची - ची ' करती , मुझे लगा किलकारियां मारती न  जाने कहाँ चली गई | ... कुछ ही देर मे लौट भी आई | शायद कही दाना चुगने गई थी | डाल पर बैठकर ची - ची करने लगी | एक डाल से दूसरी डाल पर  फुदक रही थी | तभी उसकी दृष्टी मुझ पड़ी | मेरी आखों मे आंसूं थे | मेरी मनोदशा का अनुमान लगाकर 'ची - ची ' स्वर मे मुझसे कहने लगी |"
"पाथिक | क्यों आँसूं बहाता ... ?
निराश हो ,
क्यों जीवन पंगु बनाता ... ?
अब विस्मृत कर वे क्षण
छोड़ करुण रुदन ,
- अपनी धुन मे खो जा |
उसको अब स्वयं जीने दें
मुक्त बने मधु पीने दें |
दो क्षण मिले तुझे भी
विश्राम के , जी ले -
स्वतंत्रता से , स्वच्न्द्ता से |"

"फिर एकाएक सब - कुछ विलीन हो गया , और मेरी आखें खुल गई |"
साधुराम चुप हो गया | शांति को साधुराम के मुख से सुने वृतांत का हू ब हू द्रश्य दिख रहा था | उसी मे खोकर वह उसका मूल पकड़ने का प्रयास कर रही थी | ... यही उसका अंतिम  निर्णय था | 

Bikhre Kshun - written by Ashwani Kapoor